तलाक के बाद किस आधार पर मिलती है बच्चे की कस्टडी…जानिए कानून के मुताबिक क्या है स्थिति..?
किसी भी बच्चे की जिंदगी में उसके माता-पिता के बीच तलाक सबसे बुरी स्थिति होती है। इसका सबसे ज्यादा असर बच्चों के दिमाग पर पड़ता है। तलाक के बाद बच्चे की कस्टडी किसके पास रहेगा, इसको लेकर कानून क्या कहता है, आइए जानते हैं।
प्रबीन उपाध्याय
अगर बच्चा नाबालिग है, तो माता-पिता में से दोनों को बराबर का हक है कि बच्चे को वे अपने साथ रख सकते हैं लेकिन अगर इस पर सहमति न बने तो मामला फैमिली कोर्ट तक जा सकता है।
फैमिली कोर्ट माता और पिता की बात सुनने के बाद निर्णय लेता है कि बच्चे की कस्टडी किस को दी जाए ?
किस आधार पर मिलती है कस्टडी?
हिंदू बच्चों के मामले में गार्डिनयशिप का मामला हिंदू माइनोरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट, 1956 के तहत कवर होता है। इसके मुताबिक अगर बच्चा 5 साल से छोटा है तो उसको उसकी मां के साथ रहना पड़ता है।
बच्चा अगर 9 साल से ऊपर का है तो वह कोर्ट में अपनी बात रख सकता है कि वह मां या पिता किसके पास जाना चाहता है।
बच्चा अगर बड़ा हो गया है तो उसकी कस्टडी अकसर पिता को मिलती है। अगर बेटी का हो तो उसकी कस्टडी मां को मिलती है लेकिन अगर पिता बेटी को भी रखना चाहें तो वे कोर्ट में अपनी बात रख सकते हैं।
हमेशा बच्चे के हित को माता-पिता के हित से ऊपर रखता है. कोर्ट देखता है कि बच्चा उसी के पास रहे जो सुरक्षा की गारंटी ले और नैतिकता के साथ उसका पालन-पोषण करे और उसे अच्छी शिक्षा दिलाए।
कितने प्रकार की होती है कस्टडी?
जो बच्चों की परवरिश के लिए माता-पिता को दी जाती है। फिजिकल कस्टडी के तहत माता-पिता में से किसी एक को प्राइमरी गार्डियन बनाया जाता है और बच्चा उसी के पास रहता है।
दूसरे पैरेंट को बच्चे के विजिटेशन की अनुमति दी जाती है. इसके तहत माता या पिता जिसे मिलने जुलने का अधिकार मिलता है, वह बच्चे के साथ समय गुजार सकता है.
दूसरी होती है जॉइंट कस्टडी जिसमें दोनों माता-पिता को रोटेशन के आधार पर कस्टडी मिलती है। इसमें एक निश्चित अवधि के लिए बच्चा माता-पिता दोनों के पास रह सकेगा।
इसी तरह लीगल कस्टडी होती है इसके तहत माता-पिता में कोई एक बच्चे की जिंदगी से जुड़े अहम फैसले ले सकते हैं 18 साल तक बच्चे की उम्र न होने तक माता-पिता में से कोई एक शिक्षा, वित्त, धर्म और मेडिकल जरूरतों के बारे में बड़ा फैसला ले सकते हैं।
इसके अलावा सोल कस्टडी भी होती है जिसमें माता या पिता में कोई भी एक अनिफिट होता है तो दूसरे पक्ष को बच्चे की कस्टडी दे दी जाती है.
इसी प्रकार से थर्ड पार्टी कस्टडी भी होती है। अगर माता-पिता दोनों की मृत्यु हो जाए या दोनों की दिमागी हालत ठीक नहीं या दोनों प्रताड़ित करने वाले हैं तो कोर्ट किसी तीसरे पक्ष को बच्चे की कस्टडी दे सकता है इसमें बच्चे के परिवार से कोई भी हो सकता है।
दूसरे धर्म में क्या होता है प्रावधान?
मुस्लिम धर्म में बच्चों की कस्टडी को लेकर दूसरा नियम है। इसका फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत होता है।बच्चे की उम्र 7 साल होने तक उसकी कस्टडी मां के पास होती है। इस नियम में बदलाव तभी होता है जब मां बच्चे को रखने में असमर्थ हो या अनफिट हो।
ईसाई धर्म में कस्टडी को लेकर कोई नियम ही नहीं है इसलिए भारत के ईसाइयों में कस्टडी का फैसला इंडियन डायवोर्स एक्ट, 1869 के तहत होता है बच्चे की कस्टडी किसे देनी चाहिए, कोर्ट इस बारे में अपने विवेक और जज्बात के आधार फैसला लेता है।
इसमें बच्चे का हित ऊपर रखा जाता है। अगर कोर्ट को लगता है कि माता-पिता दोनों में कोई भी बच्चे की देखभाल ठीक से नहीं कर सकेंगे तो वह किसी और को कस्टडी दे सकता है।