साड़ी महिला खिलाड़ियों के लिए बन रही है खास…साड़ी पहनकर ब्रिटिश मैराथन रेस जीती इस महिला ने रचा इतिहास
साड़ी का हिंदुस्तानी परंपरा में विशेष महत्व होता है. कपड़ों से इंसान की पहचान होती है. हाल ही में दिल्ली मेट्रो में हद से ज्यादा छोटे कपड़े पहनकर एक लड़की का वीडियो बेहद चर्चित हुआ. कुछ लोग उसके समर्थन तो कई लोग उसके विरोध में आए. किसी भी खेल में महिला खिलाड़ी साड़ी नहीं पहनती है लेकिन साड़ी में एक महिला ने किस तरह से ब्रिटिश मैराथन रेस जीती, आइए जानते हैं
साड़ी महिलाओं के लिए पारंपरिक परिधान माना जाता रहा है. स्कर्ट अथवा सलवार-कुर्ता ही महिला खिलाड़ी के लिए दस्तूरी लिबास रहे हैं लेकन अब ये जरूरी नहीं है। अब महिला खिला़ड़ी साड़ी पहनकर खेलों में अपना नाम रोशन कर रही हैं.
साड़ी पहनकर जीती रेस
हाल ही में (19 अप्रैल 2023) को जब लहराती नारंगी साड़ी पहने मधुस्मिता ने ब्रिटिश मैराथन रेस जीती तो उसके अंग्रेज दर्शक उंगली दांतों तले दबा रहे थे। अर्थात साड़ी अब ढिल्लम-ढिल्ला परिधान नहीं रहा। स्मार्ट है। चुस्त भी। सन1857 में झांसी की वीरांगना लक्ष्मीबाई यही सिद्ध कर चुकी थीं। घोड़ा दौड़ा कर। किले से छलांग लगा कर।
ओडिशा की रहने वाली इस एक महिला का नाम मधुस्मिता जेना है. उनकी उम्र 41 वर्ष की है. उनकी चटख रंग की साड़ी और स्नीकर्स में 4 घंटे और 50 मिनटों में 42 किमी से अधिक की दूरी तय की।
अपनी भारतीय विरासत को गर्व से प्रदर्शित किया। जीत के बाद उन्होंने कहा कि
“मैराथन में साड़ी पहनकर दौड़ने वाली मैं अकेली व्यक्ति थी। इतने लंबे समय तक दौड़ना अपने आप में एक कठिन काम है, लेकिन साड़ी में ऐसा करना और भी मुश्किल है। मुझे खुशी है कि मैं सारी दूरी 4.50 घंटे में पूरी करने में सफल रहीं।”
जहां लोग सुविधाजनक कपड़े पहनकर दौड़ लगाते हैं, वहीं एक भारतीय महिला ने मैराथन में साड़ी पहनकर ही दौड़ लगा दी। तो अब नए सिरे से बहस छिड़ी है कि अपने कार्य क्षेत्रों में महिला कर्मियों पर साड़ी अनिवार्यतः पहनने का प्रतिबंध न थोपा जाए। मसलन फौज, नर्सिंग, खेल आदि में।
आधारभूत कारण यही कि स्त्री का मूलभूत परिधान साड़ी ही है। यही आदिकाल से ही उसकी पहचान भी रही। पेटीकोट, चोली या ब्लाउज के साथ सात से नौ गज का वस्त्र किसी युग में स्वीकार्य पहनावा होता होगा। इसकी शक्ति का एहसास तब दुष्ट दुशासन को द्रौपदी ने करा ही दिया था। साड़ी को कवच बनाकर।
भारतीय परंपरा में साड़ी का स्थान
संस्कृत में साड़ी का शाब्दिक अर्थ होता है ‘कपड़े की पट्टी’। जातक बौद्ध साहित्य में प्राचीन भारत के महिलाओं के वस्त्र को ‘सत्तिका’ शब्द से वर्णित किया गया है।
चोली का विकास प्राचीन शब्द ‘स्तानापत्ता’ से हुआ है जिसको मादा शरीर से संदर्भित किया जाता था। कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिनी के अनुसार कश्मीर के शाही आदेश के तहत दक्कन में चोली प्रचलित हुआ था। बाणभट्ट द्वारा रचित “कादंबरी” और प्राचीन तमिल कविता “सिलप्पाधिकरम” में भी साड़ी पहने महिलाओं का वर्णन किया गया है।
भारतीय इतिहास में साड़ी का निहायत गौरवपूर्ण तथा शानदार स्थान रहा है। इसका प्रथम उल्लेख यजुर्वेद में मिलता है वहीं ऋग्वेद की संहिता के अनुसार यज्ञ या हवन के समय पत्नी को साड़ी पहनने का विधान है।
धीरे-धीरे यह भारतीय परंपरा का हिस्सा बनती गई और आज तो साड़ी भारत की अपनी पहचान है। दूसरी शताब्दी में पुरुषों और स्त्रियों के ऊपरी भाग को अनावृत दर्शाया जाता था। मूर्तिकला में दिखता है।
साड़ी का धर्म के साथ विशेष जुड़ाव रहा है, इसीलिए बहुत सारे धार्मिक परंपरागत कला का इसमें समावेश होता गया। साड़ी का इतिहास सिंधु घाटी सभ्यता में खोजा गया है, जो भारतीय के उत्तर-पश्चिमी भाग में ईसा पूर्व फला-फूला था। कपास की खेती सबसे पहले भारतीय उपमहाद्वीप में 5वीं सहस्राब्दी के आसपास की गई थी।
साड़ी का इतिहास, प्राचीन भारत से लेकर आधुनिक फैशन तक में है। यह 5,000 से अधिक सालों से अपने अस्तित्व में है। भारतीय साड़ी को दुनिया के सबसे पुराने परिधानों में एक है। प्राचीन इतिहास में साड़ी को पत्नी के लिए शुभ परिधान माना गया है।
पौराणिक काल से अभी तक प्रचलित यह भारतीय परिधान भिन्न-भिन्न परिवर्तन को संजोये हुए है। भारत के उत्तरी और मध्य भाग को 12वीं सदी में जीतने के बाद मुसलमानों ने शरीर को पूरी तरह से ढकने की रीति पर जोर दिया।
साड़ी में प्रयुक्त रंगों के माध्यम से स्त्री अपने मन के भावों को व्यक्त करती रहती है। वेशभूषा में अधिकांश लोग साड़ी को भी भारतीय संस्कृति से जोड़ते हुए गर्व महसूस करते हैं।
साड़ी पहनने के कई तरीके हैं जो भौगोलिक स्थिति और पारंपरिक मूल्यों और रुचियों पर निर्भर करते है। भारत में अलग-अलग शैली की साड़ियों में कांजीवरम, बनारसी, पटोला और हकोबा साड़ी मुख्य हैं।
इन सब में बनारसी साड़ी एक विशेष प्रकार की है जो शुभ अवसरों पर पहनी जाती है। रेशम की साड़ियों पर वाराणसी में बुनाई के संग जरी के डिजायन मिलाकर बुनने से तैयार होने वाली सुंदर रेशमी साड़ी होती है। पहले काशी की अर्थ व्यवस्था का यह मुख्य स्तंभ बनारसी साड़ी का काम था।
के. विक्रम राव