लड़कियों के कपड़ों को लेकर न करें कोई कमेंट….कपड़ों को लेकर सोसाइटी में कैसे आएगा चेंज?
लड़कियों के कपड़ों को लेकर अक्सर सवाल उठते हैं, उनके छोटे कपड़ों को पुरुष के उकसावे का आधार मान लिया जाता है. आखिर हमारा समाज लड़कियों को उनके मन-मुताबिक कपड़े पहनने पर असहज क्यों हो जाता है. आइए जानते हैं कि ये सहजता कैसे आएगी?
पल्लवी त्रिवेदी
लड़कियों ने बचपन से अपने घर/समाज के पुरुषों को अर्धनग्न अवस्था में देखा। पुरुषों का आंगन में अंडरवियर पहनकर नहाना , वहीं तौलिया लपेटकर अंडरवियर चेंज कर लेना , घर में लुंगी बनियान पहनकर घूमना , नदी ,तालाब में चड्डी पहनकर तैरना हमारे लिए असहज करने वाले दृश्य नहीं रहे। पुरुष की अनावृत्त देह कामोत्तेजना पैदा करने वाली तो हरगिज नहीं थी।
वहीं पुरुषों ने बचपन से ही स्त्रियों को ढका हुआ देखा। हमेशा वस्त्रों के प्रति सचेत होते देखा। वे अपनी दादी ,नानी माँ ,बहन ,चाची ,मौसी को न्यूनतम वस्त्रों में नहीं देखते थे बल्कि उसके उलट यदि गलती से इस अवस्था में सामने पड़ भी जाएं तो उन्हें लज्जित होते देखते थे । स्त्री देह कभी भारतीय पुरुष के लिए सहज नहीं रही। बल्कि उसे देखने की उत्कंठा भर उसे कामना से भरती रही।
जहाँ के पुरुष स्त्री देह के प्रति बचपन से सहज हैं वहाँ की स्त्रियों के कम वस्त्र चर्चा का विषय नहीं हैं। हमारे कुछ आदिवासी इलाकों ,जहाँ स्त्रियां स्तनों को नहीं ढकती हैं ,वहां के पुरुषों में उन्हें देख उत्तेजना नहीं जागती है । इसी तरह पश्चिमी देशों में स्त्रियों की देह के प्रति पुरुषों की नज़र बेहद सहज है। और यही बात इन स्थानों की स्त्रियों को उनकी स्वयं की देह के प्रति भी सहज बनाती है। वे कम से कम वस्त्रों में भी खुद को कम्फर्टेबल पाती हैं।
एक मूवी है ‘ in to the wild’ , जिसका एक दृश्य है कि नायक अकेला घुमक्कड़ी करते हुए एक आइलैंड पर पहुंचता है जहां उसे एक कपल मिलता है जो एकदम नग्न होता है और अपने रोजमर्रा के काम निपटा रहा होता है। नायक उन दोनों से इस तरह सहजता से मिलता है जैसे वह बाकी पूरे वस्त्र पहने हुए स्त्री पुरुषों से रोज़ मिलता है। यही सहजता उन दोनों स्त्री पुरुषों में भी थी। न स्त्री एक अजनबी को देखकर सकुचाती ,न पुरुष स्त्री को कपड़े पहनकर आने की हिदायत देता और ना नायक की नज़रों में एक पल के लिए भी कोई और भाव दिखाई देता है।
समाज में कैसे आएगी सहजता?
मेरा अनुभव है कि जो चीजें या दृश्य हम बार बार देखते हैं ,उसके प्रति सहज होते चले जाते हैं। चाहे वह लड़कियों के कपड़ों का मामला हो या उनके सिगरेट पीने या ड्रिंक करने और चाहे दुकान पर जाकर वाइन या कॉन्डोम खरीदने का मामला हो।
आज से 15 साल पहले भोपाल में अगर मार्केट में कोई लड़की शॉर्ट्स पहने दिखाई देती थी तो लोगों की नजरें उसकी तरफ उठ जाती थीं । आज लड़कियों का सामान्य परिधान टीशर्ट और शॉर्ट्स है और लोग भी अब रुककर इन लड़कियों को नहीं घूरते।
एक बार किशोर लड़को के एक समूह से इसी बारे में बात चल रही थी। मैंने उन्हें कहा कि दस दिनों के लिए गोआ के किसी ऐसे बीच पर चले जाओ जहां विदेशी अधिक आते हों। उनमें से एक लड़का कुछ महीनों बाद गोआ जाकर आया और मुझसे मिला। उसने बताया कि पहले दिन गोआ में बिकिनी पहले विदेशी लड़कियों को देखकर वह बहुत असहज हुआ।
अगले दो दिनों बाद यह कम हुआ और दसवें दिन वह हार्डली किसी लड़की की तरफ़ देख रहा था। अब यह दृश्य उसके लिए आम हो चुका था और आखिरी दिन वह बिकिनी पहने हुए एक विदेशी लड़की से सामान्य बातचीत भी कर रहा था ,बिना उसके चेहरे से नज़र हटाये।
लड़कियों को अपने पसंद के कपड़े पहनने दीजिये लड़कियों को जैसे कपड़े वे पहनना चाहती हैं। देखते देखते सब सहज हो जाएंगे. जैसे हमें पुरुषों के अधनंगे बदन को देखकर उत्तेजना नहीं जागती , वैसे ही पुरुष के लिए भी स्त्री देह सिर्फ कामना का विषय नहीं रह जायेगी और अगर कोई स्त्री कामोत्तेजना जगाना ही चाहेगी तो यकीन करिए वह पूरे वस्त्रों में भी इस काम को बेहतरीन तरीके से कर सकती है। सच में अब वक्त आ चुका है अब कपड़ों पर कोहराम मचाना अब बंद हो जाना चाहिए।
(लेख में व्यक्त विचार लेखिका के निजी विचार है)