साहित्यनामा

शहर चलें- शहरी जीवन की क्या है व्यथा…पढ़िए दो दोस्तों वाली ये कथा

मेरे वाले को देखलो ये तो गबरू जवान हैं बात बात पर पीटते रहते हैं । इनके डंडे के सामने तो मेरी मोती चमरी भी चीख पड़ती है। डाँट की तो बात ही रहने दे। यह चिल्लाते तो अगल बगल के गाँव तक के बैल तक इनकी आवाज से सहम जाए। अच्छा रहने दे ये सब तो रोज का है ।

शहर चलें

दो बैल दोस्त थे. दोनों को सालों बाद मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। दरअसल संयोग से पास के ही खेतों मे दोनों मित्रों से हल लगवाया जा रहा था । दोनों मालिक के दुआली के मार से कम, उनके हुंकार और डाँट से ज्यादा परेशान और चिढ़े हुए लग रहे थे। हल लगाने के दौरान ही झरका और चदरा एक दूसरे को देख चुके थे।

एक दूसरे को तिरछी नजर से देख देखकर मुस्काए जा रहे थे। चाहते तो एक दूसरे को देखते ही दौर पड़ते , चिल्लाते हुए गले लग जाते दो चार गलिया भी एक दूसरे को बकते। पर इतनी आजादी इन्हें कहा ? दोनों पट्ठे इतने दुआली और डाँट के बावजूद भी एक दूजे को देखकर मुस्कुरा रहे थे यही बड़ी बात थी। चदरा झरका को देखकर मन ही मन सोच रहा था की साले को देखो तो सही कितना मोटा और गेनडा हो गया है। लगता है पूरा ऐश मे है। उधर झरका चदरा के बारे मे सोच रहा था की साला कालू का कालू ही रह गया और सर तो देखो इसके सारे बाल गोबर के साथ ही निकाल दिया । साला गंजा।

दोपहर के समय दोनों के मालिक खाने के लिए जा रहे थे तो उस बड़े मैदान मे एक ही पेड़ होने की वजह से दोनों को एक ही जगह बांध गए ।मिलते ही दोनों एक दूसरे पर चढ़ गए मतलब एक कह रहा था वाह मोटे तू तो बहुत मौज काट रहा है तो दूसरा बोल रहा था नहीं कालू तेरे जैसी मस्ती मुझे कहा ? अरे न यार मेरी मस्ती तो तुझे मेरे चेहरे की रंगत से ही पता चल गया होगा। बाँकी तूम भाभी के बारे मे बताओ । खूब मजे ले रहे होंगे तूम तो। अरे नहीं यार क्या खाक मज़ा लूँगा, यही तो रोना है।

इतनी गाली गलौज, मार पीट के बाद ये सुख भी मिल पाता तो जीवन साकार हो जाता। मुहल्ले मे कोई भी जवान बाछी कहाँ टिक पाती है जवान होते ही गरीब मुहल्ले वाले या तो कसाई के हाथों बेच देते हैं या तो बाजार मे । कुछ एक बचती भी है तो केवल गैरों के हाथ लग पाती है। खैर तुम्हारे मुहल्ले मे होगी भी तो तेरे से तो कोसों दूर रहती होगी हाय रे कालू तेरी किस्मत । फिर चदरा जोर जोर से हसने लगा । झरका झेंप गया। फिर दोनों ने ढेर सारी बातें की बचपन की बातें व एक दूजे की खूब टांग खिंचाई की। फिर दोनों अपने मालिक बारे मे बातें करने लगे ।

चदरा कहने लगा यार झरका तेरे मालिक तो बहुत अच्छे हैं मैंने देखा वे तुझे दुआली ना के बराबर मार रहे थे। तो झरका झरक कर बोला साले मोटे तू चादरा के चादरा ही रह गया तूने ये नहीं देखा की वे बहुत कमजोर वृद्ध थे। उनके पास बस चिल्लाने भर की मुट्ठी भर ताकत थी। बमुश्किल वो हल चला पा रहे थे। उसपर डंडे बरसाते तो खाक हाल चला पाते । अच्छा हाँ तभी तो वो मार कम डाँट ज्यादा रहे थे। हाँ यार उनकी डाँट से तो मैं चिड़चिड़ा हो गया हु। इससे बेहतर तो मार ही लेते तो बेहतर था।

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उनकी आवाज कानों मे एक अजीब चुभन पैदा करती है। यार एक बात बता जब मैं खुद ही सही सही रास्ते पर चल रह रहा हु तो डांटने व चिल्लाने की क्या जरुरत है ? बताओ हाँ । पता नहीं क्या बीमारी है ? लगातार याह याह, याह याह जैसी अजीब आवाज निकालते रहते हैं। बेवजह अपनी साँसे फूलाते रहते हैं। कम से कम मुझपर ना सही अपने बुढ़ापे पर तो तरस खाना चाहिए । यार ये बात तो तुमने बिल्कुल सही कही। यदि कोई हमपर ज़ुल्म नहीं करता तो इसका ये मतलब नहीं कि वो ज़ुल्म करना चाहता नहीं बल्कि हो सकता कि वो अभी ज़ुल्म करने योग्य हो ही नहीं। ठीक इसके विपरीत यदि किसी की वज़ह से हमें फायदा पहुंच रहा है तो इसका ये मतलब नहीं की वो हमारी भलाई चाहता है।

मेरे वाले को देखलो ये तो गबरू जवान हैं बात बात पर पीटते रहते हैं । इनके डंडे के सामने तो मेरी मोती चमरी भी चीख पड़ती है। डाँट की तो बात ही रहने दे। यह चिल्लाते तो अगल बगल के गाँव तक के बैल तक इनकी आवाज से सहम जाए। अच्छा रहने दे ये सब तो रोज का है । तू ये बता तेरा खाने पीने का क्या सीन हैं? यार तू तो ऐसे पुछ रहा है जैसे हम बैलों को खाने से पहले मेनू दिखाया जाता है कि डिनर मे क्या लेंगे आप वेज या नोनवेज? सुबह नाश्ते मे टोस्ट के साथ नॉर्मल बटर लेंगे या पिनट बटर, ब्राउन ब्रेड के साथ ऑमलेट लेंगे या वाइट ब्रेड के साथ। और क्या सीन रहेगा रोज़ का घास-भूसा ही रहेगा न। और क्या? क्यों तुझे कुछ और भी दिया जाता है क्या ? अरे नहीं यार बस इसके साथ-साथ कुछ मीठा पडोसा जाता है। मतलब! मतलब ये कि गालियाँ भी पड़ती हैं। अच्छा फिर तो सही है।

यार झरका तुझे पता है कल एक बैल शहर से आया था उसका नाम क्या था क्या क्या था….. अच्छा हाँ मरदूद था।
मेरे पड़ोसी में आया था। कह रहा था कि शहर में बहुत मौज़ है। यार मेरा मन न शहर भागने का कर रहा है। क्यों भला? अरे भाई वहाँ आज़ादी से घूमते फिरते रहो। थाट से सीना चौड़ा करके जीयो। यहाँ तक की सेक्यूईरी भी दी जाती है कि कोई बुरा बर्ताव न करे, मारे-पिटे नहीं। इसके साथ-साथ खाने-पीने की कोई फ़िक़्र ही नहीं। वेज हो या नॉनवेज, मीठे स्वादिष्ट फल हों या हरी सब्जियां, मिठाई हो या फ़ास्ट फ़ूड। भाई मतलब फुल्ली मज़ा है।

झरका डपट कर बोला ये सब क्या लोग फ्री में बाँटते फिरते हैं? तू तो ऐसे बोल रहा जैसे हलवा हो। अरे नहीं सुन तो पहले झरके। शहर में हर रोज़ पार्टी, शादियां, इवेंट आदि होते रहते हैं। शहर वाले जितना खाते नहीं उससे कई गुना अधिक तो फेंक देते हैं। फाइव स्टार होटल के तक का खाना भी। यार शहर वाले तो बड़े दयालु होते हैं, गांव वाले कि तरह कंजूस नहीं होते, गाँव वाले का तो एक लुकमा भी फेंकने में कालेजा फटने लगता है। हाँ तुमने सच कहा। यार एक बात बता ये गांव वाले जब ख़ुद सही से खा पी नहीं पाते तो इनसे क्या ही उम्मीद कर सकते हो? हाँ तुमने सही कहा। मेरे मालिक ने अपने 17 साल के बेटे को शहर भेजा है। इसीलिए तो भेजा होगा।

तो क्या सोंचा कब निकलोगे शहर की तरफ़? यार तुम निकल लो जब मौका मिले मैं नहीं निकल सकता। अच्छा ऐसा क्यों? देखो मेरा मालिक बूढ़ा हो गया है। मैं अगर भाग गया तो वह बहुत कमजोर पड़ जाएगा। उसके आगे पीछे भी कोई नहीं। बेटा-बहू शहर में है। मेरे कारण उन्हें दो वक़्त की रोटी तो कमसे कम नसीब होती है। मेरे बाद बेचारा भूखे मर जाएगा। इतनी पूँजी भी नहीं कि बाज़ार से दूसरा ले आए। चलो छोड़ो फिर मैं अकेला जाकर क्या करूँगा। यहाँ हूँ तो कभी कभी तुम भी मिल जाते हो। वहाँ कौन किसका?

लेखक- राजा आलम

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