विचार/विश्लेषण

दक्षिण अफ्रीका की एक दादी ‘एंजेयू’ भाषा को बचाने की कोशिश कर रही है जैसे…हिंदी और उसकी 18 बोलियां सशक्त होंगी वैसे?

दक्षिण अफ्रीका की 90 साल की एक दादी श्रीमती जूजू कत्रीना एसाऊ वहां की सबसे पुरानी बोली एंजेयू (NJUU) को बचाने का प्रयास कर रही हैं जो अदृश्य होने की कगार पर है. क्या हिंदी और उसकी 18 उपभाषाएं यानि बोलियों पर कभी ऐसा संकट आया तो क्या करना चाहिए, आइए जानते हैं?

के. विक्रम राव

दक्षिण अफ्रीका भारत से लगभग 10 हजार किमी दूर है. हमारे यहां हिंदी और उसकी 18 उपभाषाओं के लिए वहां की एक दादी ने अनुकरणीय उदाहरण दिया है जिनका नाम है श्रीमती जूजू कत्रीना एसाऊ जो 90 वर्ष की आयु में वहां की प्राचीनतम बोली एंजेयू (NJUU) को बचाने की कोशिश कर रही हैं। उसकी केवल एक मात्र जाननेवाली हैं. उनके जाने के बाद यह भाषा विलुप्त हो जाएगी। इतिहास में गुम हो जाएगी।

प्रतिष्ठित केपटाउन विश्वविद्यालय ने इस वृद्धा को मानद डाक्टरेट की उपाधि से विभूषित किया है। मकसद है ही कि मरणासन्न बोली को जीवित रखा जा सके। यूं श्रीमती (डॉक्टर) कत्रीना एसाऊ ने अपने घरेलू पाठशाला में कुछ लोगों को इस प्राचीन भाषा में शिक्षित कर रहीं हैं। बचाव-योजना के तहत उनका आखिरी प्रयास है। कभी अफ्रीका महाद्वीप में हजारों बोलियां थीं। लेकिन यूरोपियन उपनिवेशवादियों ने अपने विस्तारवादी नीति के लिए बहुतों को खत्म कर दिया।

मगर कत्रीना एसाऊ का संघर्ष चालू है, उपिंगटन नगर (उत्तरी भाग) में अपने रोजडेल निवास के छोटे से कमरे से। यहां वे क्लास लेती हैं। उनकी नातिन कलाडिया सनीमन के अनुसार किताबों को भी प्रकाशित किया जाएगा। पहली पुस्तक “कछुआ और शुतुरमुर्ग” प्रकाशित हो गई है। कत्रीना एसाऊ जिसे स्नेह से अफ्रीकी जुबां में “आऊमा” (मायने दादी) पुकारते हैं, आश्वस्त है कि उनके प्रस्थान के पूर्व तक एंजू नामक यह बोली खूब फैलेगी, बोलने वाले बढ़ेंगे।

वे स्मरण करती हैं कि गुलामी के युग में अफ्रीका में अश्वेतों द्वारा अपनी ही भाषा और बोली का उपयोग करना कानूनन प्रतिबंधित था। अवहेलना पर जेल और दंड की सजा मिलती थी। अब उनका तथा उनकी नातिन का विश्वास दृढ़ है कि यह बोली जीवित तो निश्चित ही रहेगी। बड़ा अचरज होता है कि भेड़ चराने वाली, रसोई साफ करने वाली यह महिला आउमा कत्रीना एसाऊ अफ्रीकाई भाषाई गौरव को जीवित रखने में इतनी कारगर कैसे हुई ? अफ्रीकी अध्ययन केंद्र में एक दिन वह डी. लिट. डिग्री से सम्मानित भी हो गईं।

तुलनात्मक रूप से गौर करें तो भारतीय भाषाओं पर किए गए अनाचारों के सामने श्वेत साम्राज्यवादियों ने अफ्रीकी जन और भाषा पर कहीं अधिक जुल्म ढाये हैं। हालांकि महात्मा गांधी चंपारण से पहले दक्षिण अफ्रीका में ही सत्याग्रह को अस्त्र का प्रयोग कर चुके थे। इतिहास साक्षी है कि यूरोपीय उपनिवेशवादी सत्ता ने हब्शी करार देकर इस अफ्रीका जनता को जंगली जानवरों की भांति मारा। नृशंस बर्ताव किया। जुलू विद्रोह उसका एक छोटा दृष्टांत है। इसमें हजारों का संहार किया गया था।

अफ्रीकी अध्ययन केंद्र के निदेशक डॉ यूवेत्त तत्रहम ने उचित ही कहा था : “मूक जन से संवाद, अनुपस्थित तथ्यों की खोज करना असंभव होता है।” यही समस्या दादी कत्रीना एसाऊ के समक्ष थी। सर्वविदित है कि यूरोपीय विस्तारवादी तथा लुटेरों ने अफ्रीका में अकथनीय अत्याचार खासकर उनकी संस्कृति और भाषा पर किए।

कभी एक अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस के अश्वेत नेता ने कहा था : “ये पादरी लोग आये थे हमारे महाद्वीप में बाइबिल लेकर। आज बाइबिल हमारे हाथों में है। हमारे हीरे-मोती और जमीन उन यूरोपीयों के हाथों में।” यह दुर्दशा बदतर हो जाती है जब दादी कत्रीना एसाऊ भाषा तथा बोली की अस्मिता को संस्कृति तथा राष्ट्रवाद से जोड़ती हैं। तब मसला ज्यादा गंभीर हो जाता है।

भाषा पर हमला करके इन श्वेत शोषकों ने पूरे महाद्वीप का आकार ही विकृत करने की साजिश की थी। कहा भी इस महिला आंदोलनकारी ने कि अफ्रीका में बीते दशकों में हर माह एक बोली लुप्त होती जा रही है। नस्लवादी शोषण तथा साम्राज्यवादी राज से महाद्वीप की भाषा, संस्कृति इतिहास और सभ्यता का ही नाश कर डाला गया।

वे स्वयं अपनी किशोरावस्था के दिन याद करती हैं, जब : “ये गोरे घुसपैठिए मेरी मातृभाषा को बदसूरत कहकर परिहास करते थे। उसके बोलने पर रोक लगा दिया था। डच (हालैंड) के साम्राज्यवादी शासकों द्वारा “अफ्रीकान” जैसी दोगली भाषा को थोप कर इस दक्षिणी महाद्वीप की पहचान ही मिटा डाली थी।”

अब इस अफ्रीकी भाषायी संकट के परिवेश में भारत पर भी नजर डालें। इस संदर्भ में भारत की जनजाति-बहुल, पर्वतीय क्षेत्र उत्तराखंड में बोलियों और पारंपरिक संस्कृति को संजोए रखने के प्रयासों का उल्लेख समीचीन लगता है।

“उत्तराखंड भाषा संस्थान द्वारा साहित्य एवं शोध पत्रिकाओं के प्रकाशन पर भी सहमति बनी कि लोक भाषाओं के मानकीकरण हेतु कार्यशालाओं और प्रशिक्षण कार्यक्रमों के आयोजन हो। उत्तराखंड में विभिन्न क्षेत्रों में गढ़वाली, कुमाऊनी व जौनसारी बोलियों को बोलने वाले तथा लिखने वाले अलग-अलग हैं, जिनके लेखन में शब्दों का औच्चारणिक विभेद है। गढ़वाली एवं कुमाऊनी बोली भाषा के औच्चारणिक एवं वर्तनी के मानकीकरण की अत्यंत आवश्यकता है।”

लखनऊ के विश्व संवाद केंद्र में (13 मार्च 2018) को एक गोष्ठी आयोजित हुई थी। इसमें भारतीय भाषाओं तथा बोलियों के संरक्षण तथा सबंधों पर चर्चा हुई थी। इससे वक्ता प्रशांत भाटिया के द्वारा प्रस्तुत तथ्यों और स्थिति की संकट की गंभीरता का आभास होता था।

प्रशांत भाटिया ने एक सर्वेक्षण रपट के आधार पर बताया था : “विश्व की 6000 भाषाओं और बोलियों में से 50 फीसदी पर संकट है। ऐसी बोलियों के लिए लिपियां विकसित करने का काम शुरू किया गया है। उन बोलियों के लिए रोमन लिपि के बजाय भारत के विविध भाषाओं के लिए प्रयुक्त की जाने वाली लिपियों में से किसी किसी लिपि का प्रयोग किया जाए।”  भारत सरकार तथा राज्य सरकारों के राजभाषा विभाग को भाषा और बोलियों को सशक्त करने के लिए ठोस कार्य करना चाहिए ।

Bureau Report, YT News

YT News is a youth based infotainment media organization dedicated to the real news and real issues. Our aim is to “To Inform, To Educate & To Entertain” general public on various sectors Like Politics, Government Policies, Education, Career, Job etc. We are on the news, analysis, opinion and knowledge venture. We present various video based programs & podcast on You Tube. Please like, share and subscribe our channel. Contact Us: D2, Asola, Fatehpur Beri Chhatarpur Road New Delhi-110074 Mail ID: Please mail your valuable feedback on youngtarangofficial@gmail.com

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button