“दोस्त दोस्त ना रहा”: मित्रता के मायने को अलग तरीके से समझाता उपन्यास…जानिए इसमें और क्या है ख़ास?
"दोस्त दोस्त ना रहा" उपन्यास के मुख्य पात्र गौतम, वैशाली और अनिमेष तीनों बेहद करीबी मित्र हैं. वे कॉलेज से ही साथ हैं। गौतम और वैशाली आपको एक आदर्श जोड़े के रूप में दिखते हैं किंतु समय के साथ किस प्रकार दोनों के रिश्तों का रुख बदल जाता है, इसे आप नॉवेल पढ़ते समय महसूस कर सकते हैं साथ ही किस तरह से बीच बीच में सस्पेंस आता है कि पाठक उससे चौंक जाते हैं, आइए जानते हैं.
“दोस्त दोस्त ना रहा” यह एक नए स्वरूप का लेखन है। यह वस्तुतः नई हिंदी का उपन्यास है। आधुनिक मिश्रित भाषा में लेखन इसे सजीव, सरल व सहज बना देता है। यह नागरीय जीवन के प्रभाव में रिश्तों के मर्म को अपने पात्रों गौतम, वैशाली, अनिमेष, डॉ. मिश्र इत्यादि के माध्यम से दर्शाता है।
यह आपको अपने जीवन से जोड़ता है, जो उपन्यास की सफलता है और उसके नाम की सार्थकता है। यह अतिमहत्वाकांक्षा से उपजे लोभ के कारण रिश्तों के तार-तार होने का बखूबी वर्णन करती है तथा मनुष्य के दोहरे चरित्र को सूक्ष्म रूप में दर्शाती है।
उपन्यास वर्तमान से अतीत का सफर करते हुए वर्तमान में आता है और अनेक उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए जब अपने उत्कर्ष पर पहुंचता है तो मानवीय भावनाओं के एक बेहद संवेदनशील बिंदु पर लाकर आपको छोड़ता है – ‘अपराधबोध की भावना व उससे उपजी हुई दूरी, रिश्तों के दरम्यान !’
सुखद है कि सुशील कुसुमाकर जी की तीसरी कृति व उनके पहले उपन्यास के प्रथम संस्करण का पाठक बनने का अवसर प्राप्त हुआ। इससे पहले उनके दो कविता संग्रह आ चुके हैं – ‘ये जो शहर है’ और ‘कबूलनामा’। उन दोनों कविता संग्रह के माध्यम से उन्होंने भावनाओं के ज्वार को जिस उत्तुंग शिखर तक पहुंचाया था, इस उपन्यास के जरिए उसे एक सहजता दी है, किंतु तीव्रता वही है।
वहीं सुंदर का किरदार यह बताता है कि कैसे कोई नया हमारा अपना बन जाता है व उस वक्त हमारा साथ देता है, जब अपने भी छोड़ जाते हैं। इसी प्रकार डॉक्टर मिश्र, के. पी. चौधरी, डॉक्टर सुनीता व प्रिंसिपल के किरदारों से आप अकादमिक संस्थानों के घृणित सत्य से रूबरू होते हैं, व इन संस्थानों में आम हो चुकी राजनीति, चापलूसी, छिछलापन, भ्रष्टाचार इत्यादि के ऊपर से परदा उठता है।
उपन्यास में कथानक उभर कर सामने आया है। गहराई, जो उपन्यास की आत्मा है, के साथ जीवन दर्शन का पुट इसे वरेण्य श्रेणी से जोड़ता है। बहुत दिनों से मैंने हिंदी उपन्यास नहीं पढ़ा था और इसके साथ एक अच्छी वापसी हुई।
यह दोस्ती के कई मूर्तिमानों को गढ़ते और तोड़ते हुए आपको एक सजग पाठक बनाता है। यह पाठक को अपने परिवेश से जोड़ता है तथा अंत तक पाठ्यधारा को हमवार रखता है।
सुशील जी ने पद्य विधा में अपने शुरुआती दो कविता संग्रहों से क्रांति का बिगुल बजाया था जो इस उपन्यास में भी प्रतिबिंबित होता है तथा उनके गद्य विधा में जोरदार आगमन को दर्शाता है। अपने सामयिक जद्दोजहद में यह उपन्यास मेरा साथी रहा और आशा है कि आप सबका भी रहेगा।
उपन्यास: दोस्त दोस्त ना रहा
लेखक : सुशील कुसुमाकर
प्रकाशक : ए. आर. पब्लिशिंग कंपनी, दिल्ली
समीक्षक: हिमांशु कुमार