पहली लेडी बाउंसर मेहरुन्निसा की सफलता की कहानी, जानिए उन्हीं की जुबानी !
पहली लेडी बाउंसर सुनकर हैरान हो गए न क्योंकि अक्सर बाउंसर्स के फील्ड को पुरुषों का करियर माना जाता है लेकिन अगर हम आपको कहें कि बाकी क्षेत्रों की तरह महिलाएं इस फील्ड में भी पुरुषों की तरह सफल हो रही हैं तो आप शायद यकीन न करें लेकिन ये सच है. इंटरव्यु स्पेशल में आज हम आपको एक ऐसी लेडी बाउंसर से मिलवाएंगे जो इस फील्ड में पिछले 20 वर्षों से अपनी सेवाएं दे रही हैं. पेश है बाउंसर मेहरुन्निसा शौक़त से बातचीत के प्रमुख अंश:
पहली लेडी बाउंसर के रुप में आपकी पहचान है तो सबसे पहले आपसे ये जानना चाहेंगे कि आप अपनी फैमिली बैकग्राउंड के बारे में बताएं और क्या कॉलेज के दिनों से बाउंसर के फील्ड में अपना करियर बनाना चाहती थीं?
मैं एक मुस्लिम परिवार से ताल्लुक रखती है और उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले की रहने वाली हैं। जिले के बार्डर पर जब भी आर्मी के एक्शंस होते थे तब मेहरुन्निसा अपने भाई- बहन के साथ घर की छत पर खड़े होकर सब कुछ बहुत ध्यान से देखते थे। उस समय उनकी मां उन्हें डांटकर नीचे बुला लेती थी । हमें आर्मी का प्रैक्टिस देखना बहुत अच्छा लगता था। मैं कॉलेज के दिनों में एक फाइटर बनना चाहती थी. जब मैंने 12वीं पास की और मेरी फोटो जब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के साथ अखबार में आई तो उस समय मेरे अब्बा और परिवार की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. ये सब हमारे लिए जन्नत की तरह लगता था और हम उस साल बहुत खुश थे। इसके बाद हम दिल्ली आ गए लेकिन वहां पर हमें बहुत संघर्ष करना पड़ा.
सहारनपुर से आप दिल्ली क्यों आए और कितना संघर्ष करने के बाद सफलता मिली?
साल 2004 में हमें आर्थिक तंगी के कारण दिल्ली आना पड़ा. अपने परिवार की मदद के लिए पुलिस की नौकरी करना चाहती थी। मैंने दिल्ली पुलिस में सब-इंस्पेक्टर के लिए एग्ज़ाम क्लियर कर लिया था लेकिन मेरे अब्बा इस नौकरी के खिलाफ थे फिर भी मैंने अपने पापा से छुपकर एनसीसी यानि नेशनल कैडेट ज्वाइन कर लिया और अपनी ट्रेनिंग पूरी की जब वह पुलिस यूनिफॉर्म में घर आई तो उनके पापा ने गुस्से में उनके युनिफॉर्म में आग लगा दी। इसके बावजूद मैंने हार नहीं मानी। घर वालों को आर्थिक मदद देने के लिए फिर मैंने बाउंसर के रूप में काम करना शुरू कर दिया.
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महिलाओं के लिए बाउंसर के रुप में कैसा करियर है उनको किस तरह के चैलेंजेंस का सामना करना पड़ता है?
साल 2004 में जब हमें एक बाउंसर की नौकरी के बारे में पता चला तो मैंने सोचा कि शायद ये नौकरी मेरे लिए सही नहीं है। वैसे मैं तो शारीरिक रूप से इसके लिए फिट थी क्योंकि मैंने अपने चाचा के साथ काफी साल से जिम ज्वाइन कर रखा था. इसके बाद मौका मिल रहा था, पैसे की ज़रूरत भी थी तो मैंने हौज खास के एक क्लब में नौकरी शुरू कर दी. उसके पहले से बहुत से इवेंट्स में भी काम किया. इसके बाद मेरी छोटी बहन को भी पास के ही क्लब में बाउंसर के तौर पर रख लिया गया। चैलेंजेंस की बात करूं तो सबसे पहले तो साथ के पुरूष बाउंसर्स के व्यवहार से निपटना पड़ा, फिर बड़े घरों के जो लड़के-लड़कियां ड्रिंक करने हंगामा करते हैं, उन्हें पूरे धैर्य के साथ संभालना भी एक चैलेंज है, पर धीरे-धीरे हमें इन सब चीजों से निपटना आ गया.
आपने विद्या बालन, प्रीति जिंटा प्रियंका चोपड़ा जैसी सिलेब्रेटीज के लिए भी सिक्योरिटी दी है, उनके साथ काम करके कैसा लगा?
मैंने प्रीति जिंटा, प्रियंका चोपड़ा जैसी कई सिलेब्रेटीज की सिक्योरिटी टीम में सेवाएं दी हैं, जब भी उनकी दिल्ली में शूटिंग होती थी तो हमें ये मौका मिलता है. वे भी हमारी जैसी महिला सिक्योरिटी गार्ड्स को पूरा सम्मान देती हैं. मैं अब बाउंसर की नौकरी के साथ वह फ्रीलांस सिक्योरिटी भी देती हैं।
आपके शौक क्या क्या हैं?
मैंने कुकिंग में अपना एक साल का डिप्लोमा पूरा किया है। मैं हमेशा बाउंसर बनकर नहीं रह सकती। खाना बनाने का शौक मुझे हमेशा से ही था. मुझे लगता है कि यहां अपना अच्छा करियर बना सकती हूं। बाकी टाइम मिलने पर टीवी फिल्में भी देख लेती हूं.
जो लड़कियां या महिलाएं बाउंसर्स बनना चाहती है, उनको क्या मैसेज देना चाहेंगी?
यही मैसेज देना चाहती हूं कि किसी काम को छोटा-बड़ा नहीं समझें, अपने फिजिकल, मेंटल हेल्थ पर ध्यान दें ताकि जब आप लेडी बाउंसर्स के तौर पर किसी क्लब में एंटर करें तो सभी आपको सम्मान दें. चैलेंजेस का सामना करना सीखें फिर इस फील्ड में अनुभव के बाद अच्छी सैलरी भी मिलती है.
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