Sutta point: प्रतिभाशाली युवाओं के संघर्ष की क्या है व्यथा…पढ़िए सिस्टम के सच को उजागर करती ये कथा
Sutta point: जहां दंगे फसाद लोगों की खुशहाल ज़िंदगी को तबाह कर देते हैं, वहीं सड़ा गला बजबजाता सिस्टम अच्छे खासे टेलेंटेड युवाओं को सड़क पर चप्पल घिसने पर किस तरह से मजबूर कर देता है। यही बताती है डॉ. सुशील कुसुमाकर की कहानी 'सुट्टा प्वाइंट'
Sutta point:
सुबह हो गयी थी। सूरज अभी नहीं आया था। केवल उसके आने का आभास भर हो रहा था। कुछ लोग जाग गये थे, तो कुछ गहरी नींद में थे। लेकिन, शहर में हर तरफ़ ख़ामोशी, हर तरफ़ सन्नाटा।
सहसा, एक कोने से छोटी-सी चिनगारी भड़की। और हर तरफ़ शोर-ओ-गुल, हर तरफ़ अफरा-तफरी। देखते-देखते शहर का एक कोना आग की लपटों में समाने लगा। और आसमान गर्द-ओ-गुबार से भर गया।
वे दोनों हर चीज़ से बेख़बर कॉलोनी की सँकरी गली से आपस में बातें करते आ रहे थे, कि तभी लोगों का पगलाया हुजूम उनके सामने आ खड़ा हुआ। वे कुछ समझ पाते कि तभी लोगों का हुजूम हाथो में चाकू, डंडा और पत्थर लिये ‘मारो स्सालों को… भागने न पायें ये सारे…!’ चिल्लाता उनकी तरफ दौड़ पड़ा। लोगों का हूजुम अपनी ओर आता देख, वे दोनों जिधर से आ रहे थे, वापिस मुड़कर पूरी ताक़त से भागने लगे। और वे दोनों दौड़ते हाँफते बार-बार चीख रहे थे- ‘अरे क्यों मार रहे हमें… हम तो…।’ लेकिन, उनकी तरफ़ तेज़ी से आते पगलाये हुजूम के शोर में ‘छोड़ दो यार… हम तो यहीं के… तुम सबके साथ के…।’ की आवाज़ दब-सी गयी थी।
वे दोनों अभी भी अपनी जान हथेली पर लिये तेज़ी से भाग रहे थे। दूसरे पल, वह भागता-भागता पीछे की ओर तिरछी नज़रों से देखा। हुजूम कहीं दिख नहीं रहा था। उसकी जान में जान आयी। और वे दोनों गली के मोड़ पर खड़े हो गये। और पगलाये हुजूम से बचने की तरक़ीब सोचने लगे। तभी उन्हें बगल वाली शॉप का शटर थोड़ा-सा खुला दिखा, तो वे जल्दी से शॉप का शॅटर उठाकर अन्दर घुस गये। और शॅटर पूरी तरह नीचे गिरा दिया। लेकिन, वे अभी भी काफी डरे थे। पर, मोहन डिसूज़ा हिम्मत नहीं हारा था। उसे ख़ुद पर भरोसा था, वह सोनाली के साथ यहाँ से किसी तरह सही-सलामत ख़ून के प्यासे हुजूम से बचकर निकल जायेगा। सहसा, उसकी नज़र सटकर खड़ी सोनाली के चेहरे पर पड़ी। डर के मारे उसका माथा पसीना से भीग गया था। और होंठ काँप रहे थे। इससे वह पहले से ज़्यादा परेशान हो गया। एक तो भीड़ के हाथों मारे जाने का डर और दूसरे, साथ में सोनाली। ‘काश, कल शाम में इस कालोनी से चला गया होता… शायद, पागल कुत्ते ने काटा था… तभी तो रुक गया, न सोनाली के घर रुकता, और न यहाँ फँसता… इन हैवानों के बीच… अच्छा किया महक ने, जो कल रात हॉस्टल चली गयी घर से… अगर होती तो वो भी हमारी तरह…।’ वह सोच में डूबा हुआ था, तभी सहसा शॉप का शटर टूट गया। और देसी हथियार लहराता हुजूम शॉप के अन्दर आ गया। हुजूम में से कोई उन दोनों को देख पाता, इससे पहले वे दोनों शॉप के पिछले दरवाजे़ से दबे पाँव दूसरी ओर निकल गये।
अब वे सँकरी गली के मोड़ पर सुट्टा प्वॉइंट के पीछे दम साधे खड़े थे। तभी शोर करता हुजूम वहाँ आया। और खड़ा हो गया। उस पल, सारे के सारे खोजी नज़रों से इधर-उधर देख रहे थे। और वे दोनों सुट्टा प्वॉइंट के पीछे दम साधे उनकी हर एक्टिविटी पर निगाह लगाये हुए थे। दूसरी तरफ़ हुजूम में खड़ा एक लड़का सहसा उन दोनों की तरफ़ छोटा-सा पत्थर फेंका। पत्थर का छोटा टुकड़ा सीधे सोनाली के बायें पैर में आकर ज़ोर से लगा। सोनाली की सहसा चीख़ निकल गयी। उसकी चीख़ हुजूम को सुनायी दे पाती, इससे पहले मोहन उसके मुँह पर दायीं हथेली रख दी। और उसकी आवाज़ मुँह में ही ‘गूँ… गूँ… गूँ…’ करके दब गयी। उस पल, वे दोनों बेतहाशा डर गये थे। और ऐसा लग रहा था, कि वे अब बचने वाले नहीं लोगों के हाथों। ख़ैर, इस बीच सोनाली थोड़ा नॉर्मल हो गयी, तो मोहन उसके मुँह से हाथ हटा, थोड़ा उचक कर इधर-उधर देखा। हुजूम कहीं दिख नहीं रहा था। अब वह चौकन्ना-सा उसकी बाँह पकड़े सुट्टा प्वॉइंट के पीछे से सड़क की तरफ़ आया। और सावधनी से दूसरी तरफ़ जाने लगा। वे दोनों कुछ दूर गये थे, कि सहसा, वह हाथ में बड़ा-सा चाकू लिये सामने से आया। और उन दोनों पर झपट पड़ा। उसे अपने करीब देखा, तो वे दोनों घबरा गये। पल भर तो वे दोनों समझ नहीं पाये, ये कैसे और कहाँ से आ गया। ऐसे में वे दोनों जल्दी से पीछे मुड़े और पूरा दम लगा कर बेतहाशा भागने लगे। तभी पीछे से लहराता चाकू आया। और सोनाली की पीठ में धँस गया। दूसरे पल, वह सड़क पर धड़ाम से गिर गयी। और मोहन हक्का-बक्का-सा देखने लगा। इस बीच, दूसरी तरफ़ से लोगों का हुजूम भी शोर करता लगभग उन दोनों के पास आ गया था। ये देख, वह सोनाली को झट से उठाकर कंधे पर रखा। और तेज़ी से एक सँकरी गली में घुस गया।
और इधर, पगलाया हुजूम खड़ा इधर-उधर देख रहा था। और ज़ोर-ज़ोर से चीख़ रहा था।
‘छोड़ना नहीं उन हरामियों को… खोजो उनको… और मिलें तो मार डालो… स्साले गद्दार कहीं के…।’
सहसा, मोहन और सोनाली पर चाकू से वार करने वाला लड़का, साथ वाले से जलती लाठी लेकर, तेज़ी से सुट्टा प्वॉइंट की ओर आया। और उसमें आग लगा दी। और सुट्टा प्वॉइंट धूँ… धूँ… करके जलने लगा। और आग की लपटों से निकलता धुआँ आसमान को छूने लगा। जबकि, थोड़ी दूर पर खड़ा पगलाया हुजूम मुस्कुराता अट्टाहस कर रहा था।
ये हादसा किसी नासूर से कम नहीं था। लेकिन, लोग धीरे-धीरे भूल गये, कि उस आसमान छूती लपटों में कितने घर जले, कितनी ज़िन्दगियां बरबाद हुईं, कितने सपने भस्म हए। कितने घर टूटे पगलायी वहशी भीड़ के हाथों।
शहर अपनी रोज़-मर्रा की ज़िन्दगी में मशगूल। और लोग अपनी-अपनी ज़िन्दगी में। नामचीन मार्किट्स, सड़के, ऑफ़िस, स्कूल, कॉलेज- सब जगह अमन-ओ-चैन। पगलाया-सा एक-दूसरे के ख़ून का प्यासा हाथों में हथियार लिये घूमता हुजूम कहाँ चला गया, किसी को मालूम नहीं। ख़ैर, नफ़रती आग में जले घर, दुकाने, गलियाँ अब गुलज़ार हो गयी। कहीं किसी हादसे का नामो-निशान तक नहीं। और पूरे शहर में कहीं भी अनहोनी आशंका नहीं।
मार्च का महीना। आसमान साफ़ था। दोपहर ढलान पर थी। लेकिन, सूरज चमक रहा था।
येलो लाइन मैट्रो तेज़ रफ्तार से टैक पर दौड़ रही थी। मैट्रो कोच में भीड़ थी। और वह किसी तरह कोच के कोने में एडजेस्ट करके चुपचाप खड़ा था। उस समय, लम्बे बिखरे बाल, नाक पर टिका बड़ा काला चश्मा, जिसके गोल शीशे के पीछे से उनींदी झाँकती आँखें, चेहरे पर बढ़ी दाढ़ी, बदन पर केसरिया पुराना मैला-सा कुर्ता, सफेद पैंट, पैरों में स्लीपर डाले, कंधे पर कपड़े का बड़ा-सा थैला लटकाये सबसे अलग दिख रहा था। और वह अपलक आस-पास के लोगों को देख रहा था। तभी उसके साथ खड़े लगभग पचास-पचपन साला वेल ड्रेस्ड आदमी की नज़र उस पर पड़ी, तो वह उसका फटेहाल हुलिया देखकर अज़ीब-सा मुँह बनाया। और फिर, वह दूसरी तरफ़ देखने लगा।
इस बीच, मैट्रो कश्मीरी गेट स्टेशन पर आकर रुक गयी। उसका डोर ओपन हुआ। लोगों का हुज़ूम भेड़ के झुंड की तरह तेज़ी से कोच से बाहर दौड़ गया। दूसरे पल, थोड़े से लोग कोच के अन्दर आये। और फिर, मैट्रो का डोर बन्द हो गया।
मैट्रो एक बार फिर टै्रक पर तेज़ी से दौड़ने लगी। अब मैट्रो कोच काफ़ी हद तक खाली हो गया। तो वह थोड़ा आराम से खड़ा हो गया। और अपने अगल-बगल खड़े, सीट पर बैठे लोगों को गहरी नज़र से देखा। मैट्रो कोच में पैसेंजर अपनी-अपनी जगह बैठे और खड़े थे। और वे सभी अपने-अपने सेलफोन की स्क्रीन में नज़रें गड़ाये थे।
’’हाय गायज़… डू यू नो… ह्वाट्स प्रॉब्लम्स टूडेज़…?’’ मैट्रो कोच में डोर के पास खड़ा पागलनुमा आदमी बोला। तो अपनी-अपनी जगह बैठे और खड़े लोगों की नज़रें उस पर आकर टिक गयी। ’’एवरी पर्सन डोंट नो… ह्वाट्स दे वांट देयर लाइफ़…।’’ वह अपनी आँखें मिचमिचाता सभी को सरसरी निगाह से देखा। फिर, अपनी फटी शर्ट की जेब से लाल डायरी निकालकर खोला। और डायरी के खुले पन्नों को पल भर देखा। और फिर, लोगों की तरफ़ देखता बोला। ’’बट एवरी पर्सन इज़ रनिंग एंड रनिंग… ओनली रनिंग… विद आउट एम…।’’
वह अभी भी बड़बड़ा रहा था। और कोच में सवार लोग उसे अजीब नज़रों से देख रहे थे।
तेज़ रफ्तार में दौड़ती मैट्रो अब विधनसभा स्टेशन के करीब आ गयी।
वह कोच में आसपास खड़े लोगों को देखता बोला।
’’ह्वाट्स इट इज़ इंडियन कल्चर… हू कैन डिसक्राइव…? एनी वन टेल मी… द मीनिंग ऑफ़ रामायना…? हू इज़ रामा एंड कृष्णा…? ह्वाट् इज़ कंट्रिब्यूशन ऑफ़ रामा एंड कृष्णा इन इंडियन सोसायटी…? हू इज़ रिटन श्रीमद्भागवद्गीता द फर्स्ट इंडियन फ़िलॉसिफ़िकल बुक…? हू इज़ बुद्धा…? हू इज़ कबीर…? हू इज़ तुलसीदास…? हू इज़ महात्मा गाँधी…? हू इज़ जे.एल. नेहरू…? डू यू नो रियल हिन्दुत्वा…? इफ़ यस, देन टेल मी… ऐनी वन…।’’
सहसा, कोच में बैठे-खड़े लोग उसे ऐसे देखने लगे, मानो वह दुनिया आठवाँ अजूबा हो। उस समय, कोई उसे हिकारत भरी नज़रों से देखकर मुँह बना रहा था। कोई मुस्कुरा रहा था। और कोई खी-खी करके हँस रहा था। यानी वह मज़ाक का क़िरदार था लोगों के लिये।
’’ह्वाई यू आर लाफिंग… यू कैन से दैट वी डोंट नो ऑनसर ऑफ माई क्वेश्चन्स… बट इट इज़ वेरी शेमपुफल दैट…।’’
मोहन डिसूज़ा लोगों को पल भर देखा। लेकिन, इसके बाद वह कुछ नहीं बोला। दूसरे पल, वह हाथ में पकड़ी डॉयरी को बन्द कर कंधे पर लटक रहे थैले में रख लिया। और फिर, इधर-उधर देखने लगा। लेकिन, कोच में सीट पर बैठे और खड़े लोग उसे हिकारत भरी तिरछी निगाह से देख रहे थे। और एक-दूसरे को इशारे कर मुस्कुरा रहे थे।
इतने में, विश्वविद्यालय स्टेशन आ गया। टैक पर तेज़ रफ़्तार में दौड़ती मैट्रो रुक गयी। मैट्रो के कोच का डोर खुला। और पैसेंजर के साथ वह भी कोच से बाहर आ गया।
शाम हो गयी थी। सूरज डूब गया था। सिगरेट से निकलता धुएँ का छल्ला हवा में उड़ रहा था। और अज़ीब-सी बेचैन कर देने वाली ख़ुशबू चारों तरफ़ फैली थी।
‘सुट्टा प्वॉइंट’ की बायीं तरफ़ खाली जगह में कुछ लड़के-लड़कियाँ घेरा बनाये प्लास्टिक की कुर्सियों और टेबुल पर बैठे थे। और कुछ अपनी-अपनी टाँगें फैलाये नीचे पत्थर पर। उस समय, सभी एक हाथ में चाय का कप और दूसरे हाथ में सुलगता सिगरेट लिये आपस में गॉशिप कर रहे थे।
तभी वह वहाँ आया। और खड़ा हो गया। वह पल भर इधर-उधर देखा। और फिर, ‘सुट्टा प्वॉइंट’ के बगल खाली पत्थर पर बैठता, थोड़ा ज़ोर से बोला।
’’एक फुल चाय… और मेरा वाला ब्रांड…।’’ वह ‘सुट्टा प्वॉइंट’ के काउंटर की ओर देखता हुआ। ’’यार विजय… राजू नहीं दिख रहा… कहीं गया है क्या…?’’
’’नरेन भाई, उसे मार्किट भेजा है माल लाने… आता होगा…।’’ विजय डिस्पोज़ल कप में चाय डालता बोला। ’’कुछ काम है क्या आपको उससे…।’’
’’नहीं यार… यूँ ही पूछ रहा था…।’’
वह उसे देखता बोला। और चुप हो गया। दूसरे पल, वह अगल-बगल सरसरी निगाह दौड़ायी। सहसा, उसकी नज़र गाशिप करते लड़के-लड़कियों से थोड़ी दूरी पर नीचे पत्थर बैठे, जलती सिगरेट का कश लेकर धुआँ छोड़ते एक आदमी पर पड़ी, तो वह चौंक गया। वह पल भर उसे अचरज से देखता रहा। ‘अरे ये तो वही पागलनुमा आदमी है, जो दोपर में मैट्रो में मिला था मुझे…।’ नरेन के मन में अनेक सवालात घूम गये। ‘पर ये यहाँ कैसे…? क्या ये इसी कॉलोनी में रहता है…? ये अगर यहीं रहता है, तो इससे पहले मुझे दिखा क्यों नहीं कभी… मैं तो यहाँ सालों रह रहा हूँ…।’ फिर, वह सिर झटकता बुदबुदाया। ’शायद, यहीं रहता हो… अब ऐसों का क्या भरोसा… कब कहाँ चले जायें…।’ दूसरे पल, वह उसे देखता हुआ। ’लेकिन, पागल तो लगता नहीं… अगर पागल होता तो इतनी अच्छी अंग्रेज़ी नहीं कैसे बोलता… शायद पहले पागल न रहा हो… तो क्या किसी हादसे का शिकार हुआ ये…।’
नरेन नीचे पत्थर पर बैठा इसी उधेड़-बुन में लगा हुआ था।
’’कहाँ खोये हो भाई…?’’
वह सहसा विजय की आवाज़ से चौंक गया। दूसरे पल, वह उसकी ओर देखा। वह उसके आगे एक हाथ में चाय से भरा कप और दूसरे हाथ में छोटा गोल्ड फ्लैग लिये खड़ा मुस्कुरा रहा था।
’’कहीं नहीं यार…।’’
’’इंटरव्यू हो गया क्या…?’’ विजय उससे पूछा। ’’जो रिज़ल्ट की टेंशन में हो…।’’
वह उसे देखता ना में सिर हिलाया। पर बोला कुछ नहीं। दूसरे पल, नरेन उससे चाय का कप और सिगरेट ले ली। और विजय चुपचाप वापिस ‘सुट्टा प्वॉइंट’ में चला गया।
नरेन अब पत्थर पर बैठा कुछ सोचता-सा धीरे-धीरे चाय की सिप ले रहा था। और बीच-बीच में जलती सिगरेट का कश ले रहा था। और कनअँखियों से पास बैठे लड़के-लड़कियों के पीछे नीचे पत्थर पर बैठे पागलनुमा आदमी को देख रहा था।
’’तू स्साला मेंटल हो गया क्या… वो जिसमें ख़ुश रहे… तू वही कर न…।’’ सहसा, वह चाय की सिप लेकर बायीं तरफ़ गर्दन घुमायी, तो उसकी नज़र बगल प्लास्टि की कुर्सी पर बैठी लड़की पर चली गयी। उस पल, वह सिगरेट का कश ले रही थी। अब वह बगल बैठी लड़की को देखने लगा। तभी वह लड़की साथ वाले लड़के के कंधे पर हाथ पर रखती बोली।
’’अबे स्साले, वो जब तेरे साथ केवल लीविंग में रहना चाह रही…।’’ वह लड़की साथ वाले लड़के का चेहरा देखकर आँख मारी। ’’तो तू क्यों उससे शादी करने को फोर्स कर रहा…।’’
’’मैं उससे प्यार करता हूँ यार… तू नहीं समझेगी ये सब…।’’
लड़की के साथ बैठा लड़का उसे देखता बोला।
’’बेटा, मैं नहीं समझूँगी…! तू न… सच में मेंटल हो जायेगा…।’’ वह लड़की चाय की सिप लेकर बोली। ’’सुन जैकी… मैं उसे फर्स्ट ईयर से जानती हूँ… वो तुझसे शादी-वादी नहीं करेगी… जब तक उसकी मर्ज़ी होगी… तेरे साथ लीविंग में रहेगी… फिर एक दिन फुर्र…।’’
’’बट ह्वाई…?’’
लड़की के साथ बैठा लड़का सिगरेट का कश लेकर उससे धीरे से पूछा।
’’शी इज़ वेरी एम्बिशियस… इन नियर फ्यूचर तू उसकी ज़रूरतें पूरी नहीं कर पायेगा…।’’ वह लड़की धुएँ से घिरे पास बैठे लड़के का ख़ामोश चेहरा देखती बोली। ’’शी इज़ वेरी वेल अबाउट यू… सो मेरे प्यारे मजनूँ… वो जब तक राज़ी… तब तक लीविंग में रह… एंड इनज्वॉय योर लाइफ़ विद हर…।’’
सहसा, उसके साथ बैठा लड़का उसे थोड़ा गुस्से तिरछी नज़र से पल भर देखा। फिर, वह अपनी जगह खड़ा हो गया। और लड़की अभी भी कुर्सी पर बैठी, होंठों से सिगरेट लगाये धुआँ उड़ा रही थी। कुछ देर बाद, वह लड़की कुर्सी से उठी। और लड़के की बाँह में अपनी बाँह डालकर, वहाँ से चली गयी। और इधर, नरेन चाय की सिप लेता गॉशिप करते, ज़ोर-ज़ोर से हँसते, शोर करते बैठे लड़के-लड़कियों से थोड़ा हटकर एक किनारे नीचे पत्थर पर ख़ामोशी से बैठे पागलनुमा आदमी की हर एक्टिविटी को देख रहा था।
अँधेरा बढ़ गया था। स्ट्रीट लाइट्स की सफ़ेद रौशनी चारों तरफ़ फैली थी। सड़क पर कुछ गाड़ियाँ तेज़ रफ्ऱतार से, तो कुछ गाड़ियाँ धीरे-धीरे दौड़ रही थी।
अब वहाँ चहल-पहल पहले से बढ़ गयी थी। ‘सुट्टा प्वॉइंट’ के अगल-बगल बैठकर गॉशिप करते चाय पीने वाले, सिगरेट का धुआँ उड़ाने वाले लगभग सारे लड़के-लड़कियाँ चले गये थे। और उनकी जगह दूसरे लोग आ गये थे। उनमें से कुछ इधर-उधर रखी प्लास्टिक की कुर्सियों पर, कुछ नीचे इधर-उधर रखे पत्थर पर और कुछ खड़े-खड़े, चाय की सिप के साथ सिगरेट का धुआँ उड़ाते दुनिया-ज़माने की बातों में मशगूल थे। लेकिन, नरेन अभी भी अपनी जगह ख़ामोश बैठा, किसी गहरी सोच में डूबा इधर-उधर देख रहा था। शायद, अलग-थलग खोया-खोया-सा बैठे पागलनुमा आदमी के बारे में, शायद अपने फ्यूचर के बारे में। तभी दूसरी तरफ़ से एक जोड़ा आया। और ‘सुट्टा प्वॉइंट’ के पास खड़ा हो गया।
’’आइये अमित भाई, बहुत दिनों बाद आये…।’’ सहसा, नीचे पत्थर बैठे नरेन की नज़र उन दोनों की तरप़फ चली गयी। और एकटक उन्हें देखने लगा। इस बीच, विजय ’सुट्टा प्वॉइंट’ से बाहर आया। और उन दोनों के पास आकर खड़ा हो गया। ’’अरे वाह… महक जी साथ में आप भी… आप सब कहीं गये थे क्या…?’’
’’हमारी इंगेज़मेंट है नेकस्ट मंथ… तुम ज़रूर आना…।’’ अमित के बगल खड़ी महक पहले पल भर उसे देखा। और फिर, सामने खड़े विजय को देखती बोली। ’’मैं इंगेज़मेंट कार्ड ह्वाट्सअप करूँगी… भूलना मत…।’’
’’आप लोग बुलायें… और मैं न आऊं… ऐसा भला हो सकता है…?’’ विजय उन्हें देखता मुस्कुराकर बोला। ’’अच्छा ये बताइये… आप लोग चाय लेंगे या कॉफ़ी…।’’
’’भाई आज कॉफ़ी चलेगी…।’’
अमित उसे देखता बोला। दूसरे पल, विजय ‘सुट्टा प्वॉइंट’ के अन्दर चला गया। और वे दोनों अपनी जगह खड़े मुस्कुराते आपस में फुसफुसाने लगे।
इस बीच, नरेन चाय का कप खाली हो गया था। फिर भी, वह खाली कप एक हाथ में लिये था। पर, दूसरे हाथ की दो अँगुलियों के बीच फँसी सिगरेट अभी भी जल रही थी। और धुएँ की टेढ़ी-मेढ़ी पतली लकीरें हवा में तैर रही थी। और वह अपनी जगह ख़ामोश बैठा अमित और महक को ग़ौर से देख रहा था।
अब तक ख़ामोश बैठा अपनी दुनिया में खोया पागलनुमा आदमी सहसा पत्थर से उठा। और तेज़ी से अमित और महक के पास आया। वह मिचमिचाती आँखों से उन्हें पल भर देखा। और सहसा फट पड़ा।
’’यू बास्टर्ड… यू चीटर… यू लायर… यू बिच…!’’ मोहन डिसूज़ा आँखें बड़ी करके महक को देखता गुस्से से बोला। तो वहाँ बैठे और खड़े सभी की नज़रें उन तीनों पर आकर टिक गयी। सहसा विजय ’सुट्टा प्वॉइंट’ से निकल कर आया। और उनके पास खड़ा हो गया। वह महक और अमित से कुछ पूछता, इससे पहले मोहन जलती आँखों से अमित को देखता ज़ोर से चीख़ा। ’’यू मर्डरर… हाउ डेयर यू कम हेयर… आई किल यू…!’’
नरेन ये सब देखकर अचरज में पड़ गया। और सोचने लगा। ‘ये पागल अभी कुछ देर पहले ख़ामोशी से बैठा था। और इन दोनों को देखते ऐसा क्या हुआ… कि ये भड़क गया… और तो और, इस लड़की को भी गालियाँ दिये जा रहा…।’
’’विजय! इस पागल को बोलो… ये यहाँ से चला जाये… नहीं तो मैं इसका ख़ून कर दूँगा…!!’’ विजय को देखता अमित ज़ोर से बोला। ’’हद कर दी इसने यार… हर टाइम… जहाँ देखो पीछे-पीछे आ जाता है… हम दोनों के तो पीछे पड़ गया ये तो…।’’
’’अमित भाई… शान्त हो जाओ…।’’ विजय बायीं तरफ़ खड़ा हाँफता मोहन डिसूज़ा को देखता बोला। ’’मैं भेजता हूँ इन्हें यहाँ से…।’’ दूसरे पल, वह उसके पास आया। और बोला। ’’ये क्या मोहन भाई… अच्छा लगता है ये सब… तुम इतने पढ़े लिखे हो…।’’ वह दो पल चुप रहा। फिर, मोहन का गुस्से से लाला चेहरा देखता बोला। ’’तुम अब जाओ यहाँ से… हंगामा मत करो…।’’
उसकी ये बात सुन, मोहन गुस्से से सरसरी निगाह अमित और महक पर दौड़ायी। और फिर, सिर नीचे किये गुस्से में बड़बड़ाता वहाँ से चला गया।
इस दौरान, नरेन अपनी जगह ख़ामोश बैठा सब कुछ देख-सुन रहा था। और इधर, विजय दुबारा उन दोनों के पास आकर खड़ा हो गया।
’’विजय… अब चलते हैं हम लोग…।’’
महक उसे देखती बोली। और फिर अमित को साथ लेकर वहाँ से चली गयी। तभी नरेन अपनी जगह से उठा। और विजय के पास आकर खड़ा हो गया। दूसरे पल, वह आस-पास बैठे, खड़े और सड़क से आते-जाते लोगों को देखा। और फिर, उसे देखता बोला।
’’चलता हूँ यार… कल मिलते हैं…।’’ वह उसका ख़ामोश चेहरा देखता हुआ। ’’पैसे मैं… नेकस्ट मंथ… सारा एक साथ…।’’
’’नरेन भाई… पैसे के लिये मैंने कभी टोका तुम्हें…।’’ वह उसका चेहरा देखकर बोला। ’’ये बोल के तो तुमने अपनी दोस्ती की वाट लगा दी… जब हो जाये तो दे देना…।’’
’’थैंक यू यार…।’’
नरेन उसे देखकर बोला। और चुप हो गया। ’सुट्टा प्वॉइंट’ के अगल-बगल अभी भी कुछ लड़के-लड़कियाँ बैठे और खड़े थे। वे चाय पी रहे थे। और जलती सिगरेट से धुआँ उड़ा रहे थे।
’’अरे हाँ… यार, तुम्हारा इंटरव्यू कब है…?’’
’’कल सुबह…।’’ नरेन उसे देखता धीरे से बोला। ’’पर देखिये क्या होता है…।’’
’’इसमें देखना क्या यार…।’’ विजय उसे यक़ीन दिलाता बोला। ’’इस बार तुम्हारा हो जायेगा… ये पण्डित की भविष्यवाणी है… ।’’
’’हो जाये तो… ग्रांड पार्टी मेरी ओर से…।’’
वह मुस्कुराता बोला।
’’श्योर… होगा… ज़रूर होगा… तुम्हारा अपॉइंमेंट…।’’ विजय उसे देखता बोला। ’’और हाँ, इंटरव्यू के बाद कॉल ज़रूर करना…।’’
’’ज़रूर…!’’
नरेन उसे देखता बोला। और फिर, उससे हैंडशेक करके वहाँ से चला गया।
कॉलोनी की गली में थोड़ा अँधेरा था। अगल-बगल खड़े मकानों की खिड़कियों से बाहर झाँकती रौशनी से गली में थोड़ा उजाला था। और नरेन उसी गली में कुछ सोचता धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। तभी उसके कानों में आवाज़ सुनायी दी।
’’हलो ब्रदर… ह्वेयर आर यू गोइंग…?’’
सहसा, वह पीछे मुड़ा, तो चौंक गया। मोहन डिसूज़ा उसके आगे खड़ा मुस्कुरा रहा था। उस पल, नरेन भीतर से थोड़ा डर गया था। और वह वहाँ से निकल जाना चाहता था। लेकिन, तभी मोहन उसे देखता फिर बोला।
’’आई एम आस्किंग यू…. ह्वेयर आर यू गोइंग डियर…?’’
’’अपने कमरे पे….।’’
नरेन हड़बड़ाता बोला।
’’ओ.के.।’’ मोहन उसे देखता बोला। ’’ह्वाट आर डूइंग दिस टाइम…?’’
’’नथिंग… बेकार हूँ आजकल…।’’ नरेन उसे देखता अचरज से पूछा। ’’पर ये सब आप मुझसे क्यों पूछ रहे…?’’
’’यूँ ही… ओनली फार कनसर्न…।’’ मोहन कुछ पल चुप रहा। और फिर, वह उसे देखता बोला। ’’डू यू नाट फियर मी… आई एम नाट डिमांडिग मनी एंड एनी अदर हेल्प…।’’
’’अरे, नहीं… नहीं… आप ऐसा मत सोचो…।’’ नरेन उसे देखकर झेंपता बोला। ’’आप अगर दो साल पहले बोलते… तो मैं दे देता… आप तो विजय भाई को जानते ही हो… तो…।’’
’’आप की जॉब क्यों चली गयी…?’’ मोहन उसे देखता मुस्कुराया। ’’कुछ गड़बड़ हो गयी थी आपसे…?’’
’’गड़बड़ तो मुझसे नहीं हुई… सरकमस्टेंसस…।’’
नरेन दूसरी तरफ़ मुँह किये बुदबुदाया।
’’यस, सरकस्टेंसस…।’’ नरेन पल भर चुप रहा। वह इधर-उधर देखा। गली में से कुछ लोग आ-जा रहे थे। और उन दोनों को अजीब नज़रों से देख रहे थे। दूसरे पल, वह मोहन डिसूज़ा को देखता बोला। ’’मैं परमानेंट नहीं था न… पर दो साल पहले… यहीं की एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी में बतौर गेस्ट फैकल्टी था… लेकिन, लॉक डाउन के अनाउंसमेंट के साथ मेरी जॉब ख़त्म होने का भी अनाउंसमेंट हो गया…।’’
’’ओह…! वेरी सेड…।’’ मोहन दो पल चुप रहा। और फिर, अपनी बढ़ी दाढ़ी पर हाथ फेरता बोला। ’’बट, युनिवर्सिटी को किसी भी जाब ख़त्म नहीं करनी चाहिये थी ऐसी सिचुएशन में…।’’
’’अब क्या किया जाये… वी.सी., तो वी.सी.! वो भी तो किसी शंहशाह से कम नहीं समझता ख़ुद को…।’’ नरेन उसे देखता बोला। ’’और यूनिवर्सिटी में किसी एच.ओ.डी. या डीन की क्या मज़ाल… जो वी.सी. से कुछ बोले… ख़ैर, मैं शॉर्टकट में बोलूँ… तो मेरे साथ वाले गेस्ट, कांटैक्टचुअल, टम्प्रेरी सभी की छुट्टी हो गयी… और सड़क पर आ गये… तब से हम सारे जॉब की तलाश में अपने जूते घिस रहे…।’’
’’ओह… इट्स वेरी क्रुशियल सिचुएशन फार यू… एंड योर कलीग्स…।’’
मेहन डिसूज़ा बोलकर चुप हो गया। दूसरे पल, वह पास खड़ा नरेन को एक नज़र देखा। और फिर, अगल-बगल देखने लगा।
’’हाँ भाई… है तो…।’’ नरेन दूसरी तरफ़ देखता बुदबुदाया। ’’पर इस हालात से गुजरना तो पड़ेगा हम जैसों को…।’’
’’यू आर राइट… नाव ह्नॉट कैन डू यू एंड योर कलीग्स…।’’ मोहन उसे देखता थोड़ा तल्ख़ी से बोला। ’’जब हेड ऑफ डिपार्टमेंट्स, फैकल्टीज़ डीन एंड मैक्सिम प्रोफ़ेर्स आर अपरचुनिस्ट एंड बोनलेस…।’’
’’आप जानते हैं ये सब…?’’
नरेन उसे अचरज से देखता बोला।
’’यस… आई नो माई डियर…।’’ मोहन डिसूज़ा उसे देखकर मुस्कुराया। ’’मैं भी यूनिवर्सिटी कैम्पस में रहा हूँ… इन सबको अच्छे से जानता हूँ…।’’
’’ओ.के.।’’
नरेन उसे देखता बोला।
’’एनी वे डियर… गुड लक माई डियर… फार योर फ्यूचर…।’’
मोहन डिसूज़ा उसे देखता बोला। और फिर, वह दूसरे पल पीछे मुड़कर तेज़ी से दूसरी ओर चला गया। और नरेन अभी भी अपनी जगह ख़ामोश खड़ा इधर-उधर देख रहा था। और सोच रहा था-‘मोहन डिसूज़ा भी अज़ीब कैरेक्टर है… किसी से तो संजीदगी से बात करता है… तो किसी को देखते गालियाँ देने लगता है…।’
नरेन पिछले दो दिन से ग़ायब था। वह ‘सुट्टा प्वॉइंट’ की तरफ़ नहीं आया था। इन दो दिनों तक वह कहाँ गायब रहा, किसी को कुछ पता नहीं।
उस समय, शाम लगभग चली गयी थी। और रात अपना बसेरा डाल रही थी। स्ट्रीट लाइट्स की रौशनी चारों तरफ़ फैली थी। सड़क पर कुछ तेज़, कुछ धीमी रफ्ऱतार से गाड़ियाँ दौड़ रही थी।
और रोज़ की तरह ’सुट्टा प्वॉइंट’ के आस-पास कुछ लोग कुर्सी पर, कुछ नीचे पत्थर पर बैठे थे, तो कुछ खड़े होकर गॉशिप में लगे थे। उन सबसे एक किनारे नरेन नीचे पत्थर पर ख़ामोश बैठा खोया-खोया-सा इधर-उधर देख रहा था। सहसा, उसे पीछे से कुछ शोर सुनायी दिया, तो वह उधर देखने लगा।
सड़क पर दो रिक्शे वाले आमने-सामने खड़े थे। और वे आपस में झगड़ रहे थे। तभी उसके पास विजय आया। और ठिठकता बोला।
’’क्या देख रहे यार…?’’
वह उसे देखता पूछा, तो नरेन सड़क पर झगड़ते रिक्शे वालों की तरफ़ इशारा किया।
’’छोड़ो यार… तुम तो जानते हो… ये तो इन सबकी रोज की कहानी है…।’’ वह पहले की तरह उसे देखता हुआ। ’’ये बताओ इंटरव्यू कैसा रहा…?’’
’’इंटरव्यू ख़राब कब जाता है यार…।’’
वह उसे देखता धीरे से बोलकर चुप हो गया।
’’तो इस बात पे चाय पीओ…।’’
विजय ख़ुश होता बोला।
’’ज़्यादा ख़ुश मत होओ…।’’
’’रिज़ल्ट आ गया…!!’’
नरेन हाँ में सिर हिलाया।
’’तब तो… ऑमलेट भी लाता हूँ…।’’
’’रहने दो ये सब…।’’ नरेन सिर नीचे किये बोला। ’’मूड नहीं यार… कुछ खाने-पीने का…।’’
’’रिज़ल्ट आ गया फिर भी…।’’ विजय पल भर चुप रहा। और उसका मायूस चेहरा देखता पूछा। ’’इट मींस तुम्हारा नहीं हुआ…!’’
’’हाँ यार… कुछ समझ नहीं आया मुझे…।’’ वह गुस्से में भर्राये गले से बोला। ’’स्साला तीन पढ़ाने पे भी नहीं किया… उन दलालों ने…।’’
’’एक्सपर्ट पैनल में मेन कौन था…?’’
विजय उसे देखता रहस्यमयी ढंग से धीरे से पूछा।
और कौन होगा… वही स्साला प्रोफ़ेसर की झाँ… ट…।’’ नरेन गुस्से से बोला। ’’रामअवध कमीना…।’’
’’बाप रे… फिर तो… डेफ़नेटली किसी लड़की का किया होगा…।’’ विजय सहसा चौंका। और फिर, उसके पास पत्थर पर बैठता बोला। ’’ डेफ़नेटली किसी लड़की का किया होगा…।’’
’’तुम्हें कैसे मालूम…!’’
’’मैं उसकी रग-रग को जानता हूँ… वो बहुत बड़ा लड़कीबाज़ है यार…।’’ विजय उसे देखता रहस्यमयी अन्दाज़ में बोला। ’’तुम जब परसों रात चले गये यहाँ से… तो वो एक ख़ूबसूरत लड़की के साथ आया था… और देर तक जाने उसे कौन सा गुप्त ज्ञान दे रहा था… वो दोनों यहाँ से तब गये, जब शॉप बढ़ाने का टाइम हो गया… मुझे लग रहा उसी हसीना का किया होगा कमीने ने…।’’
’’हम जैसे कर भी क्या सकते हैं…?’’ नरेन उसे देखकर मुस्कुराता बोला। ’’लाओ चाय पिलाओ… साथ में ऑमलेट भी…।’’
दूसरे पल, विजय उसे देखता मुस्कुराया। और फिर, वह उठकर सुट्टा प्वॉइंट के अन्दर आ गया।
नरेन अब अपनी जगह बैठा स्ट्रीट लाइट्स की चारों तरफ़ फैली रौशनी में इधर-उधर देख रहा था। और इंटरव्यू में मिली नाकामी भूलने की कोशिश कर रहा था। उस समय, सड़क पर धीमी रफ्ऱतार से गाड़ियाँ रेंग रही थी। और फुटपाथ पर लोग जहाँ-तहाँ खड़े थे। और सड़क किनारे दसियों बाइक, कार आड़ी-तिरछी खड़ी थी। इससे पैदल आने-जाने वालों को प्रॉब्लम्स हो रही थी।
और इधर, सुट्टा प्वॉइंट के आस-पास कुछ लड़के-लड़कियाँ कुर्सियों पर, कुछ नीचे इधर-उधर छोटे-छोटे पत्थर पर बैठे थे, तो कुछ इर्द-गिर्द खड़े चाय पी रहे थे। और जलती सिगरेट से धुआँ उड़ा रहे थे। तभी नरेन के कानों में कुछ-कुछ जानी-पहचानी आवाज़ सुनायी दी।
’’यार… तेरी बात सही निकली…।’’
दूसरे पल, वह गर्दन पीछे घुमायी, तो देखा – उस दिन वाला लड़का, अपनी लड़की दोस्त से बिल्कुल सटकर बैठा था।
’’कौन-सी बात…!’’
लड़की सिगरेट का कश लेकर, धुआँ उड़ाकर उसका चेहरा देखती बोली।
’’तूने जो कह थी…।’’ लड़का ग़मगीन चेहरे से उसे देखता हुआ। ’’अपनी दोस्त को ले के…।’’
’’कुछ हुआ क्या तुम दोनों में…? बहस हो गयी या…।’’ लड़की दो अँगुलियों में जलती सिगरेट फँसाये, उसका मायूसी से भरा चेहरा देखती बोली। ’’या तूने उसके साथ… रात में कांड तो नहीं किया…।’’
’’नहीं यार… ऐसा कुछ नहीं किया मैंने… तू जैसा सोच रही…।’’ वह लड़का उससे सटता बोला। ’’पर उसने ठीक नहीं किया मेरे साथ…।’’
’’अबे यार… तू सीधे-सीधे बोल न…।’’ लड़की उसका चेहरा देखती बोली। ’’क्या किया उसने… मैं उससे बात करूँगी… तेरे सामने…।’’
’’शी हैज बीन गॉन विद रॉकी…।’’
वह लड़का बोलता-बोलता चुप हो गया। और इधर-उधर देखने लगा। पल भर लड़के के साथ बैठी लड़की ग़ौर से उसका मुरझाया चेहरा देखती रही। दूसरे पल, उसका हाथ पकड़ती बोली।
’’सुन… मैंने तो कई बार बोला तुझसे… वो जब तक साथ रहना चाहती… रह उसके साथ…।’’ लड़की सिगरेट का कश लेकर, धुआँ बाहर निकाला। और अधजली सिगरेट ज़मीन पर गिराती बोली। ’’सीरियस होने की ज़रूरत नहीं… पर तू उससे लव कर रहा था न…।’’
लड़का गीली आँखों से एक नज़र उसका चेहरा देखा। पर बोला कुछ नहीं।
’’मैं जानती हूँ… रॉकी तुझसे ज़्यादा पैसे वाला है… अमीर बाप का सिंगल बेटा… वो उस पे दिन में हज़ारों रूपये उड़ा सकता है… उसे यही तो चाहिये…।’’ लड़की उसका हाथ पकड़कर उसे देखती बोली। ’’अब छोड़ उसे… भूल जा… कैरियर पे कसंट्रेट कर… नहीं तो मैं भी नहीं मिलूँगी तुझे… चल अब उठ… चलते हैं…।’’
दूसरे पल, लड़की अपनी जगह से उठी। और सुट्टा प्वॉइंट के काउंटर तक गयी। विजय को रूपये दिये। और फिर, वापिस आकर कुर्सी पर बैठे लड़के के पास खड़ी हो गयी।
’’यूँ मुँह लटका के बैठने से… वो लौट तो आयेगी नहीं…।’’ लड़के की कुर्सी के पास खड़ी लड़की उसे देखती बोली। ’’चल उठ न यार…।’’
लड़का गीली आँखों से उसे सवालिया नज़रों से देख रहा था।
’’मैं भी चल रही हूँ न…।’’ वह उसका हाथ पकड़कर उसे खींचती-सी बोली। ’’तेरे साथ तेरे रूम पे…।’’
लड़का कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया, तो लड़की उसकी बाँह में बाँह डाली। और फिर, दोनों वहाँ से चले गये।
जितनी देर लड़का-लड़की में बातचीत होती रही, उतनी देर नरेन नीचे पत्थर पर ख़ामोश बैठा उन दोनों की बातें सुनता रहा। ख़ैर, वे दोनों जब चले गये, तो नरेन होंठों में मुस्कुराता फुसफुसाया।
’’स्साला… यहाँ दोगलों… लड़कीबाज़ों के चलते लाइफ़ की वॉट लग रही… और ये स्साले मजनूँ… लड़की के चक्कर में मरे जा रहे…।’’
वह अपनी जगह बैठा ख़ुद में मुस्कुरा रहा था, कि तभी विजय चाय का कप, प्लेट में ऑमलेट, सिगरेट लिये आया। और उसके पास खड़ा हो गया।
’’क्या मिल गया नरेन… जो मुस्कुरा रहे…।’’ वह चाय का कप प्लेट में रखकर उसे थमाता बोला। ’’कुछ हुआ क्या…!’’
’’होना क्या… अभी जो यहाँ बैठा था न…।’’ नरेन सिगरेट उसके हाथ से लेता हुआ। ’’एक के छोड़ जाने पे एक मातम मना रहा था… और दूसरी उसे सिमपैथी दे रही थी…।’’
’’अरे यार… नरेन… छोड़ो न… तुम तो जानते हो…।’’ विजय उसे देखकर मुस्कुराता बोला। ’’यहाँ तो रोज़ ऐसे आते हैं लैला-मजनूँ… किसी को लड़की छोड़ चली गयी… तो किसी को लड़का…।’’
नरेन उसकी बातें सुनकर ज़ोर से हँसा। विजय उसे पल भर देखता रहा। दूसरे पल, वह काउंटर की ओर चला गया।
और इधर, नरेन चाय का कप बगल में रखकर, ऑमलेट खाने में लग गया। कुछ देर में, वह ऑमलेट फीनिश करके, सिगरेट जलाया। पल भर आस-पास बैठे, खड़े गॉशिप करते लोगों को देखा। और फिर, सिगरेट का कश लेकर, चाय का कप खाली करने में लग गया।
तभी मोहन डिसूज़ा अजीब-ओ-गरीब कपड़े पहने, बढ़ी खिचड़ी दाढ़ी सहलाते, हिलता-डुलता सुट्टा प्वॉइंट के पास आया। और काउंटर के आगे खड़ा हो गया। उसे देखते, काउंटर के पीछे बैठा विजय मुस्कुराया। और फिर, काउंटर पर रखा गोल्ड फ्लैग की डिब्बी में से एक सिगरेट निकालकर उसकी ओर कर बढ़ा दी। मोहन उसे देखता ‘थैंक यू’ बोला। और उससे सिगरेट लेकर इधर-उधर देखने लगा। फिर वह, हिलता-डुलता नरेन के पास आकर खड़ा हो गया। और उसे ग़ौर से देखने लगा। मानो वह उससे कुछ कहना चाह रहा हो। इससे नरेन थोड़ा असहज हो गया। लेकिन, तभी वह मुस्कुराता दूसरी तरफ़ मुड़ा और हाथ में लिया सिगरेट होंठों के बीच दबाया। और फटी जींस की आगे वाली जेब से लाइटर निकाल सिगरेट सुलगाया। और फिर, कश लेता ’सुट्टा प्वॉइंट’ के पीछे दीवार की तरफ़ चला गया।
मोहन डिसूज़ा अपनी रोज़ वाली जगह पर बैठा, होंठों में सिगरेट दबाये कश लेता धुआँ उड़ा रहा था। और आस-पास बैठे, खड़े चाय पीते, सिगरेट से धुआँ उड़ाते लोगों को ग़ौर से देख रहा था। और इधर नरेन अपनी जगह ख़ामोश बैठा, मोहन की हर एक्टिविटी पर नज़रें लगाये अपलक देख रहा था। तभी विजय उसके पास आकर खड़ा होता बोला।
’’किसे देख रहे इतने ग़ौर से…?’’ विजय उसे देखता मुस्कुराया। ’’भाभी हैं क्या यहाँ…?’’
’’मज़ा क्यों ले रहे यार…।’’ नरेन उसे देखकर बोला। ’’मुझ बेरोज़गार को लड़की तो भाव नहीं देती… तुम भाभी तक आ गये…।’’
’’तुम उस दीवार पे नज़रें लगाये हो बहुत देर से…।’’ वह ज़ोर से हँसा। और फिर, अँगड़ायी लेता बोला। ’’तो मुझे लगा भी आज आयी होंगी…।’’
’’अगर होती… और आयी होती तो तुमसे न मिलवाता…!’’ नरेन मुस्कुराया। और फिर, सिर झटकता बोला। ’’मज़ाक बहुत हो गया… तुम बताओ सुट्टे प्वॉइंट का हाल…।’’
’’वो तुम देख ही रहे… तुमसे क्या छिपा मेरा…।’’ विजय उसके पास नीचे पत्थर पर बैठता बोला। ’’वैसे तुम दीवार की तरफ़ किसे देख रहे बहुत ग़ौर से… सच-सच बताना… मैं काउंटर से तुम पे निगाह लगाये हुआ था अब तक…।’’
’’उस पागल आदमी को… बड़ा अजीब है वो…।’’ नरेन पल भर दीवार के पास बैठे मोहन डिसूज़ा को देखा। और फिर, विजय को देखता बोला। ’’देखने में पागल… लेकिन… जब बोलता है, तो लगता नहीं कि वो पागल है… इंग्लिश तो ऐसे बोलता है… अच्छे-अच्छे… हिल जायें…।’’
विजय पल भर दीवार के पास गुमसुम बैठे मोहन डिसूज़ा को कुछ पल देखता रहा। दूसरे पल, गहरी साँस लेकर बोला।
’’तुम सही कह रहे नरेन भाई… पहले ये पागल नहीं था… टैलेंटड स्टूडेंट था… वो भी लॉ का…।’’ वह उसका उत्सुक चेहरा देखता बोला। ’’लेकिन… तीन पहले हुए उस हादसे ने इस हाल में पहुँचा दिया…।’’
’’क्या… क्या बात कर रहे यार…!’’
नरेन उसकी बात सुनकर चौंका।
’’हाँ यार…।’’
विजय उसे देखता बोला।
’’इसका नाम है मोहन डिसूज़ा…।’’
’’वेरी इंट्रस्टिंग नेम…।’’ नरेन उसे अचरज से देखता बुदबुदाया। ’’मोहन तो हिन्दू और डिसूज़ा क्रिश्चयन…।’’
’’ये डिसूज़ा नाम से फेमस था कॉलोनी में… लेकिन, उस हादसे ने इसकी ही नहीं… हम जैसों की भी दुनिया बदल दी…।’’ विजय सामने बैठे नरेन को पल भर देखा। फिर, चारों तरफ़ सरसरी निगाह दौड़ायी। और फिर, उसे देखता बोला। ’’मोहन डिसूज़ा को मैं तब से जानता हूँ, ये जब सेकेंड ईयर में था… रोज़ शाम को मेरी शॉप पे आता था सिगरेट पीने… उस समय मेरी शॉप यहाँ नहीं थी… मेरी शॉप तो ज़ाफराबाद में थी…।’’
’’तुमने बताया था मुझे…।’’ नरेन उसे देखता बोला। ’’तुम्हें तो यहाँ शॉप खोले दो साल हुए न…!’’
’’हाँ यार… क्या करता… उधर तो अब कुछ रहा नहीं… वैसे भी रहना भी इधर हो रहा… तो उधर से रोज़ सुबह-शाम आने-जाने से अच्छा तो यहीं है… और फिर, स्टूडेंट एरिया है, तो देर रात भी शॉप खुले तो कोई दिक्कत नहीं…।’’ विजय इधर-उधर नज़रें दौड़ायी। उस समय, दो-एक को छोड़ बाकी लड़के -लड़कियाँ चले गये थे। और राजू सुट्टा प्वॉइंट में काउंटर के पीछे बैठा सेलप़फोन हाथ में लिये स्क्रीन पर नज़रें लगाये था, वह शायद फ़िल्म देख रहा था। दूसरे पल, वह नरेन का चेहरा देखता बोला। ’’मुझे याद है.. उस सुबह… मैं खोखे में बैठा चाय बना रहा था… कुछ लोग खोखे के पास खड़े आपस में हँसी-मज़ाक कर रहे थे… तभी शोर करती… नारे लगाती… हाथों में लाठी, डंडा, चाकू लिये लोगों की भीड़ आयी… और वहाँ से आते-जाते लोगों को गालियाँ देती मारने लगी… फिर, अगल-बगल की दुकाने जलाने लगी… ये देख के मैं घबरा गया… मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था… कि वो सब क्यों लोगों को गालिया दे रहें… और मार रहें… एक तरह से आस-पास अफरा-तफरी मच गयी… लोग इधर-उधर भागने लगे… तो मैं भी अपनी जान बचा के वहाँ से भागा… और अपने खोखे से थोड़ी दूर पे एक दुकान का शटर उठा के घुस गया… शटर गिरा दिया… कुछ देर बाद… जब लोगों की भीड़ वहाँ से चली गयी… तो शटर थोड़ा-सा उठाया और लेट के बाहर देखने लगा… फिर वहाँ जो हुआ… वो आज भी नहीं भूला मुझे…।’’
विजय बोलते-बोलते चुप हो गया। उस पल, नरेन ख़ामोशी से उसे देख रहा था। दूसरे पल, वह सुट्टा प्वॉइंट के बगल दीवार की तरफ़ देखा। मोहन डिसूज़ा नीचे पत्थर पर बैठा दोनों हाथों को बार-बार ऊपर नीचे कर रहा था। और अपने अगल-बगल बैठे लोगों को देखकर ज़ोर-ज़ोर से बोल रहा था।
’’आई विल बी विन… आई विल बी विन… माई गोल…।’’
ख़ैर, नरेन उस पल उसकी बड़बड़ाहट अनसुना कर, विजय की ओर देखा।
’’फिर तो उस दिन तुम्हारा खोखा भी जला दिया होगा उन लोगों ने…।’’
’’नहीं, उस दिन खोखा तो जलने से बच गया… पर अगले दिन आग में भस्म कर दिया किसी स्साले ने… खोखा जलने का ग़म नहीं… लेकिन…।’’ वह चुप होकर कुछ सोचने लगा। दूसरे पल, नरेन का चेहरा देखता बोला। ’’हाँ तो मैं दुकान में शटर के पास छुपा लेटा था… नरेन यार, सच कहूँ तो डर के मारे मेरी फट के हाथ में आ गयी थी उस टाइम… दुकान से निकलने की हिम्मत नहीं हो रही थी… फिर, थोड़ी हिम्मत बटोर के जैसे निकलने को हुआ, तो देखा-मोहन अपनी दोस्त सोनाली के साथ हाँफता-हाँफता आया… और खोखे के पीछे खड़ा हो गया… उस समय दोनों के चेहरे से लग रहा था, कि वो काफ़ी डरे हुए थे… वो दोनों थोड़ी देर वहीं चुपचाप खड़े रहे… वो भी शायद वहशी भीड़ से बचते-बचाते आये थे कहीं से… कुछ देर बाद, वो जैसे वहाँ जाने को हुए, कि तभी वहाँ एक कमीना बड़ा-सा चाकू लिये आ धमका… वो दोनों उसे देख के डर गये… और भागने लगे…।’’ विजय पल भर इधर-उधर देखा। और फिर, उसे देखता धीरे से बोला। ’’इतने में वो कमीना बड़ा वाला चाकू उन दोनों की तरफ़ ज़ोर से फेंका… जो मोहन को न लगकर… उस बेचारी लड़की की पीठ पे जा लगा… चाकू लगते वो धड़ाम से गिर पड़ी… लेकिन, मोहन के हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी भाई… उस लड़की को तुरन्त अपने कंधे पे उठाया… और तेज़ी से भागकर गली में मुड़ गया… यार, मैं तो ये नज़ारा देख के हिल गया… फिर शाम तक उस दुकान से नहीं निकला… जब खूब रात हो गयी तो डरते-डरते किसी तरह घर आया… ऐसा खतरनाक नज़ारा पहले कभी नहीं देखा लाइफ़ में…।’’
’’तुम जानते हो उसको चाकू मारा था जिसने…।’’ नरेन उसे देखता पूछा। ’’और सोनाली तो बच गयी होगी…!’’
’’नहीं यार, उस्स हरामी का फेस नहीं देख पाया… लेकिन, बुरा ये हुआ, कि बेचारी सोनाली तीन दिन बाद हॉस्पिटल में डेथ कर गयी… इससे मोहन पूरी तरह सदमे में आ गया…।’’ विजय गहरी साँस लेकर बोला। ’’फिर ये महीनों घर से नहीं निकला… फिर बाद में पता चला… वो लखनऊ चला गया… और फिर एक दिन दो साल पे मिला भी यहीं कैम्पस में… तो बड़बड़ाता इस हाल में…।’’
’’स्साला… हमारी सोसायटी… हमारा सिस्टम… गटर बन गया है… गटर…।’’ नरेन इधर-उधर देखता बोला। ’’किसी अच्छे-ख़ासे डिसूज़ा की ज़िन्दगी पागल वहशी भीड़ बर्बाद करती है… तो किसी की सिस्टम में बैठे दलाल… हरामी इतना मारते हैं कि, हम जैसों को सुकून से जीने लायक भी छोड़ते…।’’
रात अब काफ़ी हो गयी थी। नरेन के साथ बैठा विजय चुपचाप दीवार के साथ नीचे बैठे मोहन डिसूज़ा को अपलक देख रहा था। दूसरे पल, वह उसे देखता धीरे से फुसफुसाया।
’’राज़ की बात ये कि… मोहन अक्सर कहता है… सोनाली को चाकू अमित ने मारा था…।’’ विजय उसके चेहरे के करीब आया। और फुसफुसाया। ’’लेकिन, जब कोई प्रूफ नहीं… तो किसी को कैसे पब्लिकली बोले… तो मैंने मोहन को बोला, ये तुम कहते हो… पर किसी ने देखा नहीं… तो कैसे यकीन करे कोई… पर ये हमेशा रटता रहता है… आई विल बी पनिश अमित वन डे…।’’
अब वे दोनों ख़ामोश बैठे इधर-उधर देख रहे थे। इतने में सुट्टा प्वॉइंट से निकल कर राजू आया। और उन दोनों के पास खड़ा हो गया।
’’विजय भइया…।’’ राजू उसे देखकर अँगड़ायी लेता मुस्कुराया। ’’टाइम हो गया आज का…।’’
’’चलो नरेन भाई… अब दुकान बढ़ाना पड़ेगा… नहीं तो तुम्हारी भाभी की कॉल आने लगेगी… तुम हिम्मत मत हारो… कभी न कभी स्साले अपाइंमेंट करेंगे…।’’ विजय अपनी जगह से उठता उसे देखकर बोला। ’’हिन्दुस्तान बहुत बड़ा है यार… यहाँ नहीं तो, कहीं और सही…।’’
’’हाँ यार… मैं भी यही सोच रहा हूँ…।’’
नरेन अपनी जगह से खड़ा हो गया। इस बीच, राजू सुट्टा प्वॉइंट में चला गया था। और इधर, वे दोनों अपनी-अपनी जगह खड़े कुछ सोच रहे थे, कि तभी मोहन डिसूज़ा अपनी जगह से उठा। और धीरे-धीरे विजय के पास आया। और खड़ा हो गया। वह पल भर अपलक उसे देखता रहा। दूसरे पल, वह उसे देखता ज़ोर से बोला।
’’आई प्रॉमिस यू विजय माई डियर… आई विल बी पनिश अमित… वन डे… बिकॉज़ ही इज़ मर्डरर…।’’
और फिर, वह हिलता-डुलता धीरे-धीरे सड़क पार कर दूसरी तरफ़ चला गया। और वे दोनों ख़ामोश खड़े मोहन डिसूज़ा को जाते देख रहे थे।